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‘प्रोग्रेस’ और ‘प्रोग्रेसिव’- प्रगतिवाद और प्रगतिवादी:
सेकुलरिजम के अन्य साजो सरंजाम के साथ प्रोग्रेस के विचार और शास्त्र की सवारी बैठा कर अंग्रेजी की गाड़ी भारत में लायी गयी है। इसीलिए प्रोग्रेस के विचार और उसके परिणाम को समझना जरूरी है। जबसे ‘प्रोग्रेस’ का मन्त्र आया है, हमारी भाषाओं में उसकी अवधारणाओं, शब्द रूप, प्रतीकों और बिंबो को ऐसा गूँथ लिया गया है, कि जैसे भाषा का एक मात्र केंद्रीय हेतु और कार्य प्रोग्रेस, – प्रगति, विकास, समाज परिवर्तन, पिछड़ापन, अगड़ापन के राग ही आलापना हो गया है। प्रोग्रेस के विचार को इसीलिए ठीक से समझने की जरूरत है।
पाश्चात्य आधुनिकता को अर्थ, आकर्षकता और गति अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में जन्मी प्रोग्रेस की अवधारणा ने दी। तबसे समस्त बौद्धिक, साहित्यिक चिंतन और विमर्श का केंद्र यह विचार बन गया; मानो जीवन के हर क्षेत्र में प्रस्थान का और उसे आंकने, तौलने का तराजू, नापदंड, और हर सार्वजनिक अनुष्ठान का मंत्र ‘प्रोग्रेस’ हो।
हमारी दृष्टि में मूलभूत परिवर्तन इस विचार ने समय या काल में गुण या मूल्य को आरोपित करके किया। अब तक सभी जीवनदृष्टिओं में समय मूल्य निरपेक्ष, निर्गुण था। प्रोग्रेस के विचार ने इसे मूल्य सापेक्ष, सगुण बना दिया। अब भूतकाल और भविष्यकाल का मूल्य अलग – अलग हो गया। पारंपरिक समाज में कभी नहीं माना जाता था, कि कोई समय विशेष, भूतकाल बुरा ही था और भविष्य अच्छा ही होगा। भूतकाल में भी उन्नत अवस्था, अच्छी चीजें हो सकती थीं और भविष्य, उस भूत के भविष्य में अवनति और बुरी चीजें भी हो सकती है, लेकिन प्रोग्रेस के विचार ने भूतकाल के समय को बुरा, पिछड़ेपन का समय घोषित कर दिया और भविष्य को, अर्थात प्रोग्रेस की सीढ़ी पर चढ़ने पर जो समय आएगा उसे पिछड़ेपन से मुक्ति का, उन्नति का समय घोषित कर दिया। काल के भारतीय बोध से ठीक विपरीत।
अब अगर आप प्रोग्रेस के विचार के हामी हैं, प्रोग्रेसिव हैं, तो समस्त भूतकाल को पिछड़ेपन का इतिहास मानना होगा, ठीक वैसा ही इतिहास तथा अन्य शास्त्र लिखना और सिखाना होगा और देश समाज लोगों को इस पिछड़ेपन से मुक्त होने के प्रयास रूप अपने इतिहास, संस्कृति, धरोहर से नफरत पैदा करनी होगी। “समाज परिवर्तन वाद” की यह मांग है। अपनी धरोहर से मुक्ति, राष्ट्र की अपनी काल – चेतना से मुक्ति प्रोग्रेस और समाज परिवर्तनवाद की पूर्वशर्त है। इनके अनुसार भूतकाल को, समग्र संचित सांस्कृतिक धरोहर को बदनाम कर, भुला कर, मिटा कर, उससे मुक्त होकर ही आप ‘प्रगति’ – ‘प्रोग्रेस’ – कर सकते हैं, ‘आधुनिक’ बन सकते हैं, ‘विकसित’ हो सकते हैं अपनी धरोहर के वसीयतधारी वारिस बन कर नहीं। अगर वारिसदार बने हुए हो, तो आप पिछड़ेपन और अज्ञान का बोझ ढो रहे हो। आपको पूरी तरह एक खाली डिब्बा होना है, जिसमें नए विचार, नए सपने, नए मूल्य, नया नजरिया, नई दृष्टि, नया ज्ञान विज्ञान तकनीक तरीके और मान्यताएँ और उन सबकी भाषा, शब्दावली, मुहावरे जाने है। आप भूल जाओ, कि आपकी कोई ज्ञान परम्परा थी, आपका कोई कुल खानदान था, जिसकी वसीयत में आपका नाम अंकित है। वसीयतधारी वारिस बनकर अपनी धरोहर को आगे की पीढ़ी को उसमें कुछ बढ़ा कर सौंपने का दायित्व अदा करने वाले कुलीन कहलाते हैं। कुलीन होकर ‘प्रोग्रेसिव’ नहीं हुआ जा सकता। आधुनिक प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता कुल-हीनों का मार्ग और मंत्र है|
जिन शाश्वत जीवन मूल्यों और उनकी साधना के मार्ग का भारत स्थान और प्रतीक है, उसके वारिस होने के लिए हमारे वर्तमान में भूत और भविष्य दोनों की संधि होनी चाहिए। वर्तमान तो वह दहलीज है, जहाँ भूत और भविष्य की संधि होती है। इस अर्थ में वर्तमान शाश्वत नियति का प्रतीक बनता है। अपने राष्ट्र के साथ तब हम समकालीन कहलायेंगे, जब राष्ट्र और प्रजा या उसके एक शक्तिशाली वर्ग की काल – चेतना के बीच सामंजस्य न रहे, राष्ट्र के वर्तमान को जब वे अपना और इसलिए राष्ट्र का भी बीता हुआ भूतकाल समझने लगे तब राष्ट्र विक्षिप्त अवस्था का शिकार हो जाता है, राष्ट्र में विखंडन पैदा होता है।
लेकिन जब प्रगतिवादी होने के कारण भूतकाल पिछड़ेपन का बोझ हो गया, उससे मुक्ति पा ली, या पा लेने के मार्ग पर हो, तब शाश्वत भारत के आप न तो वारिसदार रहे, न भारत और भारत की सभ्यता संस्कृति की शाश्वतता आपके किसी अर्थ की रही। अनर्थकारी जरूर रही, आपकी योजना के लिए, या जिनकी योजना के आप सिपाही हो, जिनके लिए गांधीजी ने भी “दलाल” शब्द का उपयोग किया है। (मैकॉले के नेतृत्व में भारत के लिए जो अंग्रेजी शिक्षा योजना बनी, उसका हेतु उसके अनुसार अंग्रेजी की सत्ता का दलाल” वर्ग पैदा करना था)।
भारत के भूतकाल का स्थान आपके विचार, हेतु, कार्य में, आपके राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति में न केवल शून्य हो गया, बल्कि राष्ट्र को प्रगतिशील बनाने की योजना में बाधा रूप हो गया। इतिहास में राष्ट्र के साथ उसकी निरंतरता को खंडित करने लायक जो कुछ घटा, उसकी सांस्कृतिक ऐतिहासिक तार्किक निरंतरता जहाँ – जहाँ भी खंडित – विक्षिप्त हुई और राष्ट्र अपनी शाश्वत नियति के मार्ग से जब – जब, जिन – जिन के द्वारा भटका दिया गया, स्वतंत्र आध्यात्मिक सांस्कृतिक यात्रा का दमन किया गया, वह सब प्रगतिवाद के लिए मददरूप है। उन दमन और भटकाव को प्रगतिवाद के हिसाब से आशीर्वाद रूप ही माना जाएगा, क्योंकि उन आक्रमणों से, विशेष कर इस्लामिक और यूरोपीय, उनके शासन से राष्ट्र की अस्मिता से प्रजा का संबंध धुंधला सा होता गया।
आज अगर अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, अपनी विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था की, जिसका वर्णन गांधीजी हिन्द स्वराज में करते हैं और जिसे राष्ट्रीय आत्मचेतना की जागृति का साधन और हेतु बनाया, उसकी तस्वीर मिट-सी गई है, धुंधली और उथली-सी रह गई है। उसकी आत्मचेतना और आत्मस्मृति धुंधला गई है। ठीक वही हुआ है, जो प्रोग्रेसिव होने के लिए मूल जरूरत होती है और जो प्रगतिवाद के लिए आधुनिक शिक्षा आज भी कर रही है। भारत की अस्मिता की खंडित हुई निरंतरता और पथ से भटकाव को प्रगतिवाद के प्रचंड प्रचार के प्रभाव में आकर हम समझ नहीं पा रहे है।
अब सच्चा साहित्यकार वह था, जो अपने साहित्य और कविता में इस विचार का घटाटोप खड़ा करे। साहित्य और काव्य में एक पूरी नयी धारा विकसित कर ली गयी, जबकि अन्याय के खिलाफ हमेशा कवि खड़े हुए, लेकिन उनकी भाषा सेक्युलर प्रोग्रेसिविसम की नहीं थी। गुजरात के इस युग के समर्थ कवि उमाशंकर जोशी को इतना सख्त कहने के लिए कि “भूख्या जनोनो जठराग्नि जागशे, खण्डेर नी भस्म कणी न लाधशे” प्रोग्रेसिव नहीं बनना पड़ा था! ऐसे ही या अधिक समर्थ कवियों लेखकों की कमी किसी भाषा में नहीं रही है, न उन्हें प्रोग्रेसिव, दलित, नारीवादी इत्यादि होकर पश्चिम में जो मर चुके हैं, उन विचारवादों की लाशें ढोने की जरूरत थी, न ही अधमरे विचार वादों की सेवा सुश्रुषा करने की, जिनमें भारतीयता बसी रमी थी, उन्हें समाज की बुराइयों के प्रति जागृति लाने के लिए भारतीयता छोड़कर बाहर नहीं जाना पड़ा, क्योंकि वे साहित्यकार थे, दुकानदार, आढ़तिये, दलाल नहीं।
अगर हमें खुद को, अपनी आने वाली पीढ़ियों को, भारत के भविष्य को, सभ्यता को और खास तो हमारी नैतिकता, धर्म और न्याय को बचाना है, तो हमें समस्त बौद्धिक और शिक्षा तंत्र को इस विद्रूप दृष्टि से मुक्ति दिलानी होगी। ऐसा नहीं करेंगे, तो हमारे स्वत्व और हमारे अस्तित्व के बीच का विरोधाभासी अंतराल इतना बढ़ता चलेगा, कि हम पूर्ण रूप से एक विक्षिप्त राष्ट्र बन जायेंगे, वह किसीसे नहीं सम्हलेगा, वह फिर से गुलाम बन जाएगा।
अंग्रेजी भाषा भारत में एक पूरे सरंजाम के साथ आयी है, उसे हमारे मन मस्तिष्क में जमा देने के लिए। उसे पूरी तरह पहचानने की जरूरत है। उसे उतार नहीं फेकेंगे, तो उसकी नियति है भारत को अंदर से विच्छिन्न, प्रतिभाहीन, शक्तिहीन कर अपना अनुयायी गुलाम बनाये रखने की। हमारे किये जा रहे परिवर्तन की स्थिति के कठोर सत्य को कहने वाले तीन प्रतीकात्मक शब्द इसी लिए इस लेख में देने पड़े हैं; झकझोरकर नशा उतारने के लिए: नकलची बन्दर, चमगादड़, और अधोमानव या असुर। अगर चेतना का प्रकाश थोड़ा भी है, बुझा नहीं है प्रगतिशीलों की तरह, तो खुद की पहचान करना मुश्किल नहीं होगा।
काफी बड़ा समुदाय है, जो इस में से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है, लेकिन इसके ज्ञान के साथ जब यह छटपटाहट होगी, मुक्ति का मार्ग बनेगा।
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