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चर्चा सत्र —
कार्यक्रम के प्रथम दिन दो चर्चा सत्र आयोजित हुए। भिक्षावृत्ति के संदर्भ से लोग इतने दूर हो गए हैं, कि हम भिक्षावृति को भिखारी ही समझने लगे हैं। यह हमारे पूर्वाग्रह की सीमा है। स्वर्गीय गुरुजी रवींद्र शर्मा जी हमेशा कहते थे, कि स्मृति जागरण बहुत जरूरी है। इसलिए पहला चर्चा सत्र भिक्षावृत्ति के परिचय पर रहा। दिल्ली के आर्यमन जैन ने इस सत्र का संचालन किया। सत्र के वक्ता और अतिथि रहे: श्रीमती राजश्री शर्मा जी (सह संस्थापिका, कला आश्रम, आदिलाबाद), श्री बाल कृष्ण रेणके (संस्थापक, सामाजिक विकास अनुसंधान संस्थान, सोलापुर), सेवानिवृत्त प्रो. जयधीर तिरुमल राव जी (तेलुगु विश्वविद्यालय, हैदराबाद), श्री गोपीकृष्ण (घुमंतू एवं चरवाहा समाज विशेषज्ञ, बेलगाम) और श्री आशीष गुप्ता (संस्थापक, जीविका आश्रम, जबलपुर)। श्री आशीष गुप्ता जी ने भिक्षावृत्ति के परिचय और उत्सव की प्रस्तावना से सत्र की शुरुआत की।
सेवानिवृत्त प्रो. जयधीर तिरुमल राव जी ने बात पर जोर दिया, कि इन भिक्षावृति समूह को केवल कलाकार या रंगकर्मी कहना ठीक नहीं होगा। यह उनके इतिहास को सीमित कर देता है। यह बात जरूर है, कि उनके काम में सौंदर्य और कलाकारी भरपूर मात्रा में दिखती है, लेकिन उनका काम केवल मनोरंजन करना नहीं था। वे ज्ञान की बातें, झगड़े सुलझाना, संदेश पहुंचाने जैसे काम सहज ही कर लिया करते थे। उन्होंने बताया, कि भिक्षावृत्ति समूह के साथ एक बड़ी समस्या यह भी है, कि उनका कोई स्थायी निवास या स्थान नहीं होता। वे अपने यजमानों के यहाँ कहानियाँ सुनाने जाते हैं। उनकी पहचान अपनी जाति से जुड़ी हुई है। सरकार भी उन्हें अनपढ़–गँवार समझती है और उन्हें शिक्षित करना चाहती है। ऐसा कहते हुए उन्होंने सालों पुराने पटचित्र और ताँबे के बर्तन दिखाए, जिस पर इन्हीं तथाकथित अनपढ़ लोगों ने विस्तृत लिखाई की हुई थी। इन समूहों को किसी खाँचे में आंटने से पहले हमें थोड़ा सोचना चाहिए। सत्र का समापन मध्यप्रदेश के सीधी जिले से आए वसुदेवा समाज के लोगों के गायन से हुआ।
दूसरा सत्र भिक्षावृत्ति के कला में योगदान पर था। सत्र का संचालन श्री प्रकाश आमटे जी के साथ गढ़चिरोली, महाराष्ट्र में आदिवासी समूहों के साथ शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे श्री अमित कोहली जी ने किया। इस सत्र के वक्ता रहे: सेवानिवृत्त प्रो. जयधीर तिरुमल राव जी (तेलुगु विश्वविद्यालय, हैदराबाद), श्री सुमनस्पति रेड्डी (पूर्व स्टेशन निदेशक, आकाशवाणी, अदिलाबाद), श्री संतोष द्विवेदी (अध्यक्ष, मध्यप्रदेश गांधी स्मारक निधि, छतरपुर) और नरेंद्र बहादुर (अध्येता, लेखक और रंगकर्मी, सीधी)। इस सत्र के अंत में आदिलाबाद, तेलंगाना से पधारे थोटी समुदाय ने अपना गायन प्रदर्शन किया।
उत्सव के दूसरे दिन, ‘भिक्षावृत्ति की अर्थव्यवस्था’ पर तीसरा चर्चा सत्र आयोजित हुआ। श्री गोपी कृष्ण (घुमन्तु एवं चरवाहा समाज विशेषज्ञ, बेलगाम), डॉ. मनोजा (पूर्व प्रोफेसर, पालमुरु विश्वविद्यालय, महबूबनगर), श्री मदन भोलावत (घुमन्तु एवं अर्ध- घुमन्तु समुदाय विशेषज्ञ, जोधपुर) ने इस चर्चा सत्र में भाग लिया। वर्षा-बाधित इस सत्र और अगले सभी सत्रों का संचालन श्री आशीष गुप्ता जी ने ही किया। डॉ. मनोजा ने कहा, “मुझे लगता था, कि हर जगह की भिक्षावृत्ति या आश्रित परम्परा अलग रही होंगी, लेकिन यहाँ आकर लगा है कि हर जगह की व्यवस्था विविध होने के साथ–साथ, बहुत एक जैसी भी हैं।”
उत्सव के तीसरे दिन, चौथा और अंतिम सत्र ‘भिक्षावृत्ति की प्रासंगिकता’ पर हुआ। सोलापूर, महाराष्ट्र से पधारे श्री बालकृष्ण रेनके (अध्यक्ष, विमुक्त जनजाति विकास आयोग), डॉ. सुखदेव राव (वंशावली संरक्षण एवं संवर्धन संस्थान), जोधपुर, श्री बसंत कुमार (खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग सदस्य, दिल्ली) और श्री सुमनस्पति (पूर्व स्टेशन निदेशक, आकाशवाणी), आदिलाबाद, श्रीमति राजश्री शर्मा (सह संस्थापिका, कला आश्रम, आदिलाबाद) इस चर्चा सत्र के मुख्य वक्ता रहे। कई प्रतिभागियों के मन में सवाल थे, कि इस लुप्त होती परम्परा को आज अपनाया कैसे जाए। आशीष गुप्ता जी ने जवाब देते हुए बताया, “किसी भी चीज को अपनाने से पहले, उसे समझना जरूरी होता है। हमें अपनी परम्परा को समझने के लिए पूर्वाग्रह के आइने को कुछ क्षणों के लिए त्यागना होगा।”
इसी में अपनी बात जोड़ते हुए सुमनस्पति जी ने कहा, “देखने की इच्छा हो तो हमें सहज ही ऐसी परम्पराओं के अंश अपने गाँवों, शहरों में भी दिख जायेंगे। आपको किसी भी स्थानीय सपेरों या नर्तक मंडली से बात करने पर ताज्जुब होगा कि केवल 2–3 पुश्तों पहले तक यह सभी समूह केवल कलाकार या प्रदर्शक नहीं थे। यह सभी जातिगत रूप से अपने जजमानों ने लिए गाने–बजाने जाते थे और वे इनका पालन–पोषण करते थे।”
सत्र के दौरान, जोधपुर के वंशावली लेखन परम्परा से आये श्री भँवर सिंह जी ने अपने एक जजमान की वंशावली पढ़कर सुनाई। जहाँ लोग 2–3 पुश्तों पहले के पूर्वजों के नाम भूल जाते हैं, वहाँ कुछ ऐसी भी जातियाँ रहीं हैं जो जातिगत रूप से लोगों के पास जाकर उनकी वंशावली पढ़ती थी और उन्हें आशीर्वाद देती थी। उनकी वंशावली पोथी, उनके बैठने और वंशावली वाचन की पद्धतियों को देखकर सभी प्रतिभागी गर्व-मिश्रित आश्चर्य में डूब गए।
कार्यक्रम के दौरान अमरावती, महाराष्ट्र से पधारे बहरूपियों ने टंट्या भील, भगवान शंकर, शिवाजी महाराज आदि का जीवंत रूप धरकर सबको विस्मृत कर दिया। उत्सव के तीनों दिन इस पूरी टोली ने कई-कई रूप धरकर सबका बहुत मनोरंजन किया।
सत्र के अंत में प्रतिभागियों ने अपने अनुभव साझा किए। अनुश्री जी (अध्यापक, अशोका विश्वविद्यालय) ने कहा, “इतने विविध समूहों को प्रत्यक्ष देखकर मुझे सामाजिक और असामाजिक स्वाबलंबन का फर्क समझ आया। आज जीवन इतना व्यक्तिगत हो गया है, कि लोग सारे काम खुद करके खुद को स्वाबलंबी बताते है, जबकि हमारे यहाँ ऐसी कल्पना रही है, जहाँ एक व्यक्ति की बजाय, पूरा समाज स्वाबलंबी होता था।”
इस समापन सत्र के साथ ही इस भव्य उत्सव का समापन हुआ। स्थानीय गन्यारी गाँव से आए तम्बूरा बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो चुके श्री जुगराज सिंह जी ने अपने मनोरंजक अन्दाज में कुछ भजन सुनाये। इसके बाद सभी कारीगरों और भिक्षावृत्ति समूहों का मान किया गया।
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