धरमपाल जी की चिंता: सहजता और आत्म विश्वास कैसे लौटे

यह धरमपाल जी का शताब्दी वर्ष है। जगह जगह छोटे बड़े कार्यक्रम हो रहे हैं। अभी 19 तारीख को धर्मपाल जी के जन्मदिवस पर प्रधानमंत्री ने शांति निकेतन, बंगाल में दिये अपने एक भाषण में शिवाजी जयंती (जो उसी दिन पड़ती है) के साथ धर्मपाल जी के शोध का कुछ विस्तार से ज़िक्र भी किया। हाल में उनको लेकर एक सुगबुगाहट सी देखने को मिलती है।

देश में कई दशकों से एक प्रकार के विचार और भारत के विगत के बारे में एक खास प्रकार के मिथक प्रभावी रहें हैं, उसमें और महात्मा गांधी जिस ओर (‘स्व-राज’ की दिशा में) देश को ले जाना चाहते थे, इन दोनों के बीच कोई सामंजस्य नहीं था और धरमपाल जी की अपनी अनूठी शोध से जो दृष्टि बनी उसके लिए भी, आज़ादी के बाद बुद्धिजीवी जगत और राजनीति के क्षेत्र में (गांधीवादियों समेत) जो वर्ग प्रभावी रहा, उसमें इस तरह के विचारों के लिए जगह मिलना बहुत मुश्किल रहा है, पर अब लगता है कि छोटे-मोटे ही सही पर धरमपाल की बातों के लिए कुछ रास्ते खुले हैं। अब जो लोग उनके काम को गहराई से समझते हैं, उन पर निर्भर है कि वे इसका लाभ उठायें और उनके काम को आगे बढ़ायें।

धरमपाल जी के कई पक्षों पर बात हो सकती है। अधिकतर उन पर जब बातें होती हैं, वे उनके अत्यंत महत्त्वपूर्ण शोध कार्य तक सीमित हो जाती हैं और अमूमन यह महज एक exotic जानकारी और अपने विगत के बारे में कोरे अहंकार तक ही सीमित हो कर रह जाती हैं।

कुछ लोग खुश हो जाते हैं, कुछ लोग इन पर प्रश्न खड़े करने लगते हैं या इनकी अवहेलना / अनदेखी करने लगते हैं। देश के प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग को सत्य से ज़्यादा अपनी पहचान से प्रेम है और उनकी पहचान जिन वैचारिक आधारों पर खड़ी है, वह धरमपाल के कार्य से उलट हैं, इसलिए यह वर्ग आज तक धरमपाल जी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम की अवहेलना करते रहा है।

पर धरमपाल जी के कार्य को महज जानकारी के तौर पर देखने और वहीं तक सीमित कर देने से, इस कार्य में अंतरनिहित अनेक महत्त्वपूर्ण और ज़रूरी पक्षों से हम वंचित रह जाएंगे।

धरमपाल जी का समस्त कार्य देश और पश्चिम को समझने की एक कोशिश थी, जिसकी प्रेरणा के पीछे देश को लेकर एक गहरी पीड़ा और व्यथा थी। धरमपाल जी ने तो अपनी स्नातक की पढ़ाई 1942 में बीच में ही छोड़ दी थी। वे कोई आजकल जिसे इतिहासकार कहा जाता है, वैसे इतिहासकार तो नहीं थे। उनकी शोध समझने के लिए थी, कोई डिग्री पाने के लिए नहीं। इसलिए उसमें मौलिकता है।

जिन लेखागारों और पुस्तकालयों में उन्होंने बरसों तपस्या की और जिन दस्तावेजों को देखकर उन्होंने भारत की जो तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत की, उन दस्तावेजों को अन्य लोगों ने भी देखा ही होगा, पर वे वह देख नहीं पाये जो धरमपाल देख पाये। ऐसा क्यों होता है, कि हम देख कर भी वह नहीं देख पाते, सुन कर भी वह नहीं सुन पाते, जो महात्मा गांधी, धरमपाल और रवीन्द्र शर्मा ‘गुरुजी’ जैसे लोग लोग देख और कर पाते हैं?

संभवतः इसलिए, कि ये लोग दूसरों के द्वारा भारत के बारे में, सदियों से बनाई गई तस्वीर और उससे जुड़ी मान्यताओं से  प्रभावित हुए बगैर, खुले दिमाग से देखते, सुनते और उस पर मनन करते हैं। जो लोग धरमपाल जी के काम से रोमांचित होते हैं उन्हें इस बात को पकड़ने की आवश्यकता है।

धरमपाल जी के शोध कार्य का संभवतः सिर्फ साठ प्रतिशत या उससे भी कम ही प्रकाशित हो पाया है, पर ऐसा लगता है बरसों की तपस्या के बाद दस्तावेजों को पढ़ते पढ़ते, महात्मा गांधी को पढ़ते और समझते हुए और साथ ही भारत के साधारण व्यक्ति और साधारण लोक जीवन को देखते हुए उन्होंने इन अलग अलग क्षेत्रों में बनी समझ को आपस में जोड़ने का सतत प्रयत्न किया।

आजकल विशेषज्ञों और विशेषज्ञता का जमाना है, जिसमें ज्ञान अलग अलग खांचों में सीमित हो कर ही रह जाता है, पर जीवन की  वास्तविकता है कि हर चीज़ हर दूसरी चीज़ से जुड़ी होती है – सीधे सीधे या घुमावदार, थोड़ा जटिल रास्तों से।

धरमपाल जी की समग्रता में चीजों को देखने और जोड़ने की वजह से उनकी भारत और पश्चिम के बारे में एक मौलिक समझ बनी, जिसका प्रमाण उनकी पुस्तक ‘भारतीय, चित्त, मानस और काल’ में मिलता है, जो संभवतः उनके बरसों के काम के निचोड़, उससे जनित दृष्टि और समझ से निकली लगती है। महात्मा गांधी की तरह उन्हें भी भारत के साधारण लोक जीवन की श्रेष्ठता दिखाई देने लगी थी। यहाँ के साधारण के व्यवहार, मान्यताओं, काम करने और सोचने के तरीकों में उन्हें श्रेष्ठता दिखाई दी और साथ ही आधुनिक (पश्चिमी) व्यवस्थाओं, तौर तरीकों में छद्म रूप से निहित हिंसा, शोषण, नियंत्रण करने की प्रवृत्ति भी साफ साफ दिखाई दी।

इसके बाद यह स्पष्ट हो गया, कि भारत का लोक मानस और यह आधुनिक व्यवस्था जिन प्रवृत्तियों को उकसाती हैं या जिस ओर मनुष्य को जाने को लगभग विवश करती हैं, इन दोनों के बीच टकराव है, दोनों की बैठकें अलग अलग हैं। हमारा मानस इस आधुनिकता के साथ बैठता नहीं और हमें लगातार एक पराये और प्रतिकूल वातावरण में अपने को ढालने का प्रयास करना पड़ता है।

धरमपाल जी की शोध, चाहे वह शिक्षा व्यवस्था की बात हो, यहाँ की उन्नत तकनीक और विज्ञान की बात हो, यहाँ के विरोध जताने के तरीकों की बातें हों – ये सब हमें अनोखी लगती है, इसलिए भी कि जो तस्वीर भारत की इतने वर्षों में गढ़ी गई, वह इसके लगभग विपरीत बैठती है।

इनको जान कर हमें गर्व भी होना स्वाभाविक है पर हमारा ध्यान इस बात पर जाना और भी जरूरी है कि वो कौन से कारण थे, जिनसे यह सब संभव हो पाया। उन मान्यताओं, जीवन दृष्टि और व्यवस्थाओं के सिद्धांतों को हमें पकड़ना है, जिसके लिए शोध के साथ साथ, गहरा मनन और मौलिक चिंतन ज़रूरी है और इसके लिए कुछ समय के लिए मुक्त भाव से सोचने की ज़रूरत है, बगैर पश्चिम को देखे।

जैसे अच्छे बच्चे हर काम को करते वक्त अपने माँ- पिता की ओर देखते रहते हैं, कि उन्हें कैसा लग रहा है, उनकी सराहना मिल रही है या नहीं – ऐसा ही कुछ हाल हमारी प्रभावी बौद्धिकता का हो गया है, जो किसी भी काम को पश्चिमी या पश्चिम प्रभावित बुद्धिजीवियों के अनुमोदन के बिना नहीं कर पाते। इस प्रवृत्ति को हम में से कुछ लोगों को कुछ समय के लिए त्यागना पड़ेगा।

हर महत्त्वपूर्ण बात के लिए पश्चिम की ओर देखने से हमारा लाभ कम और नुकसान ज़्यादा हो रहा है। हम अब हर क्षेत्र में उनकी नकल करने लगे हैं और इसका एक असर यह होता है, कि हम देख कर भी नहीं देख पाते, सुन कर भी नहीं सुन पाते और मौलिकता से कोसों दूर हो गए हैं।

यह बीमारी हमारी मीडिया, बौद्धिक जगत, राजनीति, शिक्षा, तकनीक और विज्ञान, खेती, आंदोलनकारियों सभी को लग गई है। इससे मुक्त हुए बगैर हम न तो ढंग से काम कर पाएंगे और न ही अपने मानस के अनुकूल व्यवस्थाएँ खड़ी कर पाएंगे और अपने स्वभाव के अनुकूल व्यवस्थाएँ जब तक नहीं होंगी, तब तक हम असल मायने में न तो स्वतंत्र होंगे, न सहज और न ही वास्तविक आत्मविश्वास हम में आ पाएगा। धरमपाल जी की असली चिंता और प्रयत्न यही था।

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