ग्राम की पारंपरिक कल्पना
नाट्यशास्त्र में साधारणिकरण की स्थिति पाने के लिए क्रीड़ास्थल (playhouse) के निर्माण की बात कही गयी है। क्रीड़ास्थल उन सभी विघ्नों को हटाने के लिए है, जो साधारणिकरण (immersion) को तोड़ सकते हैं। जैसे नाटक के बीच अगर बारिश हो जाए, तो इस विघ्न से दर्शकों का immersion टूट जाएगा। ऐसे ही, अगर कलाकार की आवाज़ दर्शक तक न पहुंचे, तो immersion बन ही नहीं पाएगा, या फिर कोई और बाहरी आवाज़ कलाकार की आवाज़ को दबा दे। इसीलिए हम जब नाटक देखने जाते है तो आपस में बात नहीं करते, अपने फ़ोन बंद कर देते हैं इत्यादि और इसी लिए टेलिविज़न पर जब नाटक देखते हैं को बीच बीच में आते विज्ञापन परेशान करते हैं। यह सब हमारे immersion को तोड़ते हैं।
अब मज़ेदार बात यह है कि नाट्यशास्त्र में कुछ ऐसे भी विघ्नों का ज़िक्र है जिसका सीधा संबंध नाट्य से नहीं दिखता; जैसे सूखे का भय हो, महामारी का भय हो, पड़ोसी राज्य के आक्रमण का भय हो, राजनीतिक उपद्रव का भय हो इत्यादि। ये सब भी विघ्न माने गए हैं। हम यह तो समझ ही सकते हैं कि भविष्य की चिंता हमें नाट्य में immerse होने से रोकेगी और इसलिए ऐसे भाव नाट्य में व्यवधान ही पैदा करेंगे। लेकिन यह बात समझनी मुश्किल है कि कोई ऐसा क्रीड़ास्थल हो जो आपके सूखे के डर को हटा दे या युद्ध के डर को हटा दे। एक क्रीड़ास्थल ऐसा नहीं कर सकता।
ऐसे में हमें ग्राम व्यवस्था के उपर ध्यान देना चाहिए। आदिलाबाद के श्री रवींद्र शर्मा पारंपरिक ग्राम व्यवस्था के अच्छे ज्ञाता थे।9 हालाँकि वे अपने इलाक़े के गाँवों की ही बात करते थे, लेकिन उनकी बात सुन कर सभी को अपने – अपने इलाक़े के गाँव याद आ जाते थे। रवींद्र शर्मा जी की बात मानें, तो हर गाँव में दो चीज़ों की सुनिश्चितता थी – सभी परिवारों की आहार की सुरक्षा थी और उनके काम का गौरव। उनमें जीता व्यक्ति भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता था। यह कहना ठीक होगा, कि पारम्परिक जाति व्यवस्था हर परिवार को यह निश्चिन्तता प्रदान करती थी।
लेकिन गाँव केवल इतना ही नहीं करता था। इसके अलावा हर गाँव अनेकों भिक्षावृत्ति परिवारों (कलाकार समाज) का भी पोषण करता था। ये परिवार नाट्य वाले लोग रहे हैं- नाटक, कठपुतली, कथावाचन, संगीत, वाद्य, जाति पुराण इत्यादि। प्रोफेसर जयधीर तिरुमल राव ने आन्ध्र-तेलंगाना प्रांत में 74 ऐसी जातियों की सूची तैयार की है।10 रवींद्र शर्मा जी भिक्षावृत्ति को ग्राम व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए देख रहे थे।
मेरे विचार में भिक्षावृत्ति परिवारों की भूमिका ग्राम्य व्यवस्था में सबसे अहम रही है। इनका काम गाँव में समाजिकता पैदा करने का होता था। ये लोग अनेक कथाओं का अनेक कलाओं द्वारा प्रदर्शन करते थे और इनके द्वारा गाँव में धर्म – अधर्म पर सामूहिक विचार – विमर्श की संस्कृति पनपी। अगर हिंदुस्तान के आम जन-मानस में धर्म – अधर्म पर चिंतन करने का अभ्यास है, तो इसका सबसे बड़ा श्रेय भिक्षावृत्ति परिवारों को ही जाता है। सदियों से, पीढ़ी दर पीढ़ी गाँवों में रामायण, महाभारत और अनेक नाट्य प्रदर्शित होते आ रहे हैं और इनके बहाने विचार – विमर्श की संस्कृति का निर्माण हुआ है।
हमारे गाँव केवल परिवारों के बीच आर्थिक अंतरसंबंधों से नहीं चले हैं। बल्कि इन संबंधों का आधार रहा है धर्म के प्रति सामूहिक चिंतन और धर्म स्थापना का सामूहिक प्रयास। रवींद्र शर्मा जी के मुताबिक़ आम जन – मानस में धर्म के प्रति जो सद इच्छा है, वही मूलरूप से हमारे विविध समाज में एकत्व का स्त्रोत्र है।
हमारे पूर्वजों ने गाँव की समृद्धि को महत्त्वपूर्ण माना है और गाँवों की समृद्धि का प्रयोजन बस इतना ही रहा है कि हर परिवार नाट्य का दर्शक बन सके और धर्म – अधर्म पर चिंतन करे। समृद्धि अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं रहा है और ऐसी समृद्धि जो समाजिकता का हनन करे, उसे सही नहीं समझा गया है। निरंकुश समृद्धि की दौड़ का फल आधुनिकता में हमें अब दिखने लगा है।
निष्कर्ष
अगर वापिस लौटकर देखें, तो ग्राम की कल्पना के मूल में सामाजिकता रही है और सामाजिकता तभी सुनिश्चित होती है, जब ग्राम में रह रहे सभी परिवार भविष्य के प्रति निश्चिन्त हों और उनका जीवन – यापन सहज हो। यह पारंपरिक जजमानी व्यवस्था से सुनिश्चित होता आया था।
निश्चिंत परिवार ही नाट्य के दर्शक बन सकेंगे और साधारणिकरण (immersion) की अवस्था को प्राप्त कर सकेंगे। ऐसे परिवारों से समाज बनता है और समाज की प्राथमिक चिंता धर्म की स्थापना की होती है।
इससे बिलकुल भिन्न, आधुनिक काल में सोसाइटी की कल्पना है। इसमें आहार (प्रॉपर्टी) की सुरक्षा अपने आप में लक्ष्य है और आज का नाट्य धर्म – अधर्म के मुद्दों से विमुख होकर प्रायः मनोरंजन का माध्यम बन गया है जिसमें अधिकांश रूप से आहार (साधन) संपन्नता और उससे उपजी ऐंद्रीय सुख की ही कल्पना घूमती है। सोसाईटी में जी रहे लोगों का जीवन – यापन लगातार जटिल होता जा रहा है; एक मित्र ने इसे कलियुग का एक लक्षण बताया है।
भविष्य में समाज निर्माण के लिए क्या करना है और कैसे करना है? ऐसे में पौराणिक समाज और ग्राम की कल्पना को पकड़ना शायद कारगर सिद्ध हो। जिसके लिए पौराणिक दृष्टि और भाषा दोनों को ही पकड़ना होगा।
1देखें आचार्य, नंदकिशोर “सभ्यता का विकल्प: गांधी-दृष्टि का पुनर्वलोकन” वागदेवी प्रकाशन, बीकानेर 1995.
2यहाँ इतिहास की दृष्टि और हिस्ट्री की दृष्टि में भेद करना उपयोगी रहेगा। इस संदर्भ में देखें Singh, Navjyoti “Sense of Past: Itihasa vs History” in Remembering Dharampal SIDH 2007.
3देखें MonierMonier-Williams “A Sanskrit-English Dictionary: Etymologically and Philosophically Arranged with special reference to Cognate Indo-European Languages” Asian Educational Services New Delhi 2005.
4देखें Arendt, Hannah “The Human Condition” University of Chicago Press, 1958.
5देखें Ghosh, Manmohan “The Nāttyaśāstra: A Treatise on Hindu Dramaturgy and Histrionics. Ascribed to Bharat Muni. Vol 1”The Asiatic Royal Society of Bengal, Calcutta 1959.
6Realmof appearances; impressions, judgements, imagesetc॰
7Material realm
8हैना आरेंडट ने मानव की second birth की बात कही है। नवज्योति सिंह ने भी द्विज शब्द को इसी रूप में देखा है।
9देखें SmritiJagaranKeHarkare: Ravindra Sharma (Guruji). Ed. Gupta, Pawan and Gupta, Ashish K. Published by SIDH 2019.
10देखें Satya, Harsh Ph.D. thesis “Towards Revitalizing Diversity: A Study of the Traditional Jajmani System in India”, Appendix-III 2020.
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