एक भारत ऐसा भी के पिछले अंक में हमने श्री आशीष कुमार गुप्ता जी से बातचीत प्रारम्भ की थी। इस बातचीत में हमने जाना था, कि भारतीय अर्थव्यवस्था कैसे barter system से भिन्न है। barter में बराबरी की लेनदेन होती है और हमारी व्यवस्था के तो आयाम ही अलग है, ये तो है ही, साथ ही में भारतीय अर्थव्यवस्था में तो गौरव की व्यवस्था की भी बात आती है, जोकि इसे अर्थव्यवस्था के स्तर से उठाकर सामाजिक अर्थव्यवस्था के स्तर पर रख देती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था व्ययप्रधान अर्थव्यवस्था रही है, जबकि बाकी जितने भी economic या socio – economic isms की बात की जाए, वे आयप्रधान हैं। आयप्रधान अर्थव्यवस्था सदैव इसी चिंतन में रहती है, कि लोगों की आय कैसे बढाई जाए, जबकि व्ययप्रधान अर्थव्यवस्था में व्यय के बढ़ाने के ऊपर ज़ोर दिया जाता है।
हमारे यहाँ प्रत्येक त्योहार को, प्रत्येक व्रत को, प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान को, प्रत्येक संस्कार (१६ संस्कार) को देने के साथ जोड़ा गया है। किस दिन किसको क्या, कितना और कैसे देना है – इसको इतना विस्तार से सोचा गया था, समझा गया था और निश्चित किया गया था, कि समाज सदैव समृद्ध रहे। यहाँ ध्यान दिया जाना चाहिए, कि ये सब कुछ भी परंपरा के द्वारा सुनिश्चित था और परम्पराएँ देशकाल के अनुरूप अपना स्वरूप बदलती भी रही हैं। व्यवस्था में इतना लचीलापन मौखिक परंपरा के बिना ला पाना भी कदाचित कठिन है।
वैसे देखा जाए, तो आज का आधुनिक अर्थतन्त्र भी व्यय बढ़ाने के ऊपर ही ज़ोर देता है। per capita expenditure वही तो बात है, किन्तु आज के अधिकांश खर्चे तो समाज का अधिक से अधिक धन बटोरकर गिनेचुने चंद उद्योगपतियों के पास पहुँचाने के हथकंडे मात्र बनकर रह गए हैं, जबकि भारतीय अर्थतन्त्र में जब भी व्यय होता, तो पहले तो सुपरिभाषित होता था, कि किसको कहाँ, कितना और कैसे देना है, जबकि आज तो अनाप शनाप खर्चे करके दिखावा करने को ही बड़ी बात माना जाने लगा है।
भारतीय अर्थतन्त्र में जो भी लेनदेन होता, वह गाँव या गाँवसमूह के भीतर ही होने के कारण समाज में धन का प्रवाह (cash flow) भी बना रहता और समाज की समृद्धि भी, जबकि आज तो धन का प्रवाह एक ही दिशा में होने से समाज में कंगाली छाने लगती है। हाँ, मुद्रास्फीति (inflation) जैसे आधुनिक अर्थतान्त्रिक साधनों के द्वारा समाज को धनवान होने का आभास जरूर करवाया जा सकता है और करवाया जाता भी है, लेकिन हो तो धन का केन्द्रीकरण ही रहा है।
आधुनिक अर्थतन्त्र में व्ययप्रधानता के प्रयोग करने से तो उलटे कंगाली और बढ़ेगी। आज भारत के अधिकांश गाँवों में कृषि उपज और दूध के अतिरिक्त ऐसा कोई भी साधन नहीं है, जिससे गाँव में धन आए, सुई से लेकर ट्रैक्टर और ट्रक तक सबकुछ बाहर से आता है और गाँवों का धन खींच ले जाता है। यहाँ तक, कि गाँवों में फल तक बाहर से आने लगे हैं।
आधुनिक अर्थतन्त्र में जहाँ जहाँ परिवहन होता है, वहाँ वहाँ धन का प्रवाह पेट्रोलियम कंपनियों की तरफ मुड़ने लगता है और आजकल तो हरेक कंपनी छोटे छोटे पुर्जे बनाती है, उसके लिए कच्चा माल दूर दूर से लाती है, अपने पुर्जे दूर दूर बेचती है और उन पुर्जों में से कुछ और बनाता है, उसका पूरा supply chain होता है, जिसमें से गुजरते वो आपके पास आता है, तो इस समूची प्रक्रिया में कभी कभी तो वस्तु की कीमत से अधिक धन पेट्रोलियम में चला जाता है।
तो कुल मिलाकर भारतीय अर्थतन्त्र को ना तो barter, ना तो socialist, ना तो स्थानीय, ना तो minimalist जैसे शब्दप्रयोगों से समझा जा सकता है; आवश्यकता है, कि हम हमारे गाँवों, हमारी परम्पराओं और हमारी व्यवस्थाओं को समझें। भारतीय अर्थतन्त्र इन शब्दों से अनेक गुना बड़ा है।
जहाँ तक इस समस्या से उबरने की बात है, तो पहले तो हम इसे पहचानें, कि हम समस्या से घिरे हैं और Selective Acceptance for Ultimate Rejection सूत्र को समझकर दिशाशोधन किया जाए।
देखते रहिए एक भारत ऐसा भी।
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