पिछले कई दिनों से कोरोना के कारण मनुष्य अपनी दिशा को लेकर चिंतन करने पर बाध्य हुआ है और उसी चिंतन के फल स्वरूप अलग अलग संदेश WhatsApp के माध्यम से घूमते रहते हैं। कुछ कुछ संदेशों में संवेदनाओं की बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति होती है। ऐसे ही चुनींदा संदेश हम आपके सामने प्रस्तुत करते रहेंगे। चूंकि ये संदेश घूमते घूमते आए हैं, इनके रचयिता का नाम कदाचित हम ना भी जान पाये। उन अज्ञात रचयिताओं को नमन करते हुए और धन्यवाद ज्ञापित करते हुए हम इस श्रेणी के प्रथम संदेश को आपके सामने रखते हैं।
मैं गाँव हूँ
मैं वही गाँव हूँ जिस पर ये आरोप है कि यहाँ रहोगे तो भूखे मर जाओगे।
मैं वही गाँव हूँ जिस पर आरोप है कि यहाँ अशिक्षा रहती है।
मैं वही गाँव हूँ जिस पर असभ्यता और जाहिल गवाँर होने का भी आरोप है।
हाँ, मैं वही गाँव हूँ जिस पर आरोप लगाकर मेरे ही बच्चे मुझे छोड़कर दूर बड़े बड़े शहरों में चले गए।
जब मेरे बच्चे मुझे छोड़कर जाते हैं, मैं रात भर सिसक सिसक कर रोता हूँ, फिर भी मरता नही। मन में एक आस लिए आज भी निर्निमेष पलकों से बांट जोहता हूँ शायद मेरे बच्चे आ जाय, देखने की ललक में सोता भी नहीं हूँ।
लेकिन हाय! जो जहाँ गया वहीं का हो गया।
मैं पूछना चाहता हूँ अपने उन सभी बच्चों से, क्या मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेदार तुम नहीं हो?
अरे मैंने तो तुम्हे कमाने के लिए शहर भेजा था और तुम मुझे छोड़ शहर के ही हो गए। मेरा हक कहाँ है?
इस कोरोना संकट में सारे मजदूर गाँव भाग रहे हैं, गाड़ी नहीं तो सैकड़ों मील पैदल बीवी बच्चों के साथ चल दिए, आखिर क्यों? जो लोग यह कहकर मुझे छोड़ शहर चले गए थे कि गाँव में रहेंगे तो भूख से मर जाएंगे, वो किस आशा और विश्वास पर पैदल ही गाँव लौटने लगे? मुझे तो लगता है निश्चित रूप से उन्हें ये विश्वास है कि गाँव पहुँच जाएंगे तो जिन्दगी बच जाएगी, भर पेट भोजन मिल जाएगा, परिवार बच जाएगा। सच तो यही है कि गाँव कभी किसी को भूख से नहीं मारता। हाँ मेरे लाल! आ जाओ, मैं तुम्हें भूख से नहीं मरने दूंगा।
आओ मुझे फिर से सजाओ, मेरी गोद में फिर से चौपाल लगाओ, मेरे आंगन में चाक के पहिए घुमाओ, मेरे खेतों में अनाज उगाओ, खलिहानों में बैठकर फल खाओ, खुद भी खाओ दुनिया को खिलाओ, महुआ, पलास के पत्तों को बीनकर पत्तल बनाओ, गोपाल बनो, मेरे नदी, ताल, तलैया, बाग, बगीचे गुलजार करो, बच्चू बाबा की पीस पीस कर प्यार भरी गालियाँ, रामजनम काका के उटपटांग डायलाग, पंडिताइन की अपनापन वाली खीज और पिटाई, दशरथ साहू की आटे की मिठाई हजामत और मोची की दुकान, भड़भूजे की सोंधी महक, लईया, चना कचरी, होरहा, बूट, खेसारी सब आज भी तुम्हें पुकार रहे है।
मुझे पता है वो तो आ जाएंगे जिन्हें मुझसे प्यार है लेकिन वो? क्या वो आएंगे जो शहर की चकाचौंध में विलीन हो गए? वहीं घर मकान बना लिए, सारे पर्व, त्यौहार, संस्कार वहीं से करते हैं मुझे बुलाना तो दूर पूछते तक नहीं। लगता है अब मेरा उनपर कोई अधिकार ही नहीं बचा? अरे अधिक नहीं तो कम से कम होली दिवाली में ही आ जाते, तो दर्द कम होता मेरा। सारे संस्कारों पर तो मेरा अधिकार होता है न, कम से कम मुण्डन, जनेऊ, शादी और अन्त्येष्टि तो मेरी गोद में कर लेते। मैं इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि यह केवल मेरी इच्छा है, यह मेरी आवश्यकता भी है। मेरे गरीब बच्चे जो रोजी रोटी की तलाश में मुझसे दूर चले जाते हैं उन्हें यहीं रोजगार मिल जाएगा, फिर कोई महामारी आने पर उन्हें सैकड़ों मील पैदल नहीं भागना पड़ेगा। मैं अपने बच्चों को शहरों की अपेक्षा उत्तम शिक्षित और संस्कारित कर सकता हूँ, मैं बहुतों को यहीं रोजी रोटी भी दे सकता हूँ। दे सकता हूँ क्या, देता आया हूँ, जब तक मेरे बच्चे मुझे छोड़कर जाने नहीं लगे थे।
जो मुझसे प्यार करते हैं, उनका तो मैं पलकें बिछाए स्वागत करूंगा, जो मुझसे प्यार नहीं करते, उनका भी स्वागत करूंगा; मेरा तो उनके प्रति प्रेम कम नहीं हुआ है।
मैं तनाव होने ही नहीं देता। मैं सोने के लिए प्रकृति की गोद देता हूँ। मैं सब कुछ कर सकता हूँ मेरे लाल! बस तु समय समय पर आया कर मेरे पास, अपने बीबी बच्चों को मेरी गोद में डाल कर निश्चिंत हो जा, दुनिया की कृत्रिमता को त्याग दे। फ्रीज का नहीं घड़े का पानी पी, त्योहारों समारोहों में पत्तलों में खाने और कुल्हड़ों में पीने की आदत डाल, अपने मोची के जूते और दर्जी के सिले कपड़े पर इतराने की आदत डाल, हलवाई की मिठाई, खेतों की हरी सब्जियाँ, फल फूल, गाय का दूध, बैलों की खेती पर विश्वास रख; कभी संकट में नहीं पड़ेगा। हमेशा खुशहाल जिन्दगी चाहता है तो मेरे लाल! मेरी गोद में आकर कुछ दिन खेल लिया कर, तु भी खुश और मैं भी खुश।
अपने गाँव की याद में
अजय सिंह।
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