बचपन में कथा सुनाने के लिए बड़े बूढ़ों से जिद करना एक आम बात है। हम सब उस भाग्यशाली पीढ़ी के भाग हैं, जिन्होंने दादी-नानी से किस्से कहानियां सुनी है। गर्मी के मौसम में आंगन में खुले आसमान के नीचे माई (हमलोग दादी को माई ही कहते थे) से कथा सुनाने की ज़िद में जीत प्रायः हम बच्चों की ही होती थी। कथा सुनने के आनंद को शब्दों में बताना बहुत मुश्किल है।
बचपन में वो कथाएँ तो बस आंनद का ही साधन था किन्तु आज जब उन कथाओं के विषय में विचार करता हूँ तो समझ में आता है कि वो कथाएँ केवल आनंद के लिए नहीं होती थी। कथा हमारी पीढ़ियों के साधना और अनुभव के प्रसाद के समान थी। इस प्रसाद को हमारी माई बहुत ही सहज तरीके से हम बच्चों में बाँटती थी। कथा के द्वारा वह हम बच्चों के बाल मन के कोमल धरातल में अपनी संस्कृति के कुछ बीज सहेज रही थी, जो समय और परिस्थिति के साथ ख़ुद को उद्घाटित करते।
उन कथा कहानियों को याद करना आज भी मेरे जीवन की सुखद स्मृतियों में से एक है। माई के कहानियों के पिटारों में ऐसी बहुत सी बाते थीं जिन्हें अगर लिखने लगूँ तो वह ग्रन्थ का रूप ले ले। जो बात मुझे यह पोस्ट लिखने के लिए प्रेरित कर रही है, वह बात है हर कथा के अंत में माई के द्वारा एक बात को दोहराना। बचपन में हमारे लिए उस उक्ति का मतलब था कि कथा अब समाप्त हो गई। उक्ति थी कि “कथा गईल बन में सोच अपना मन में”। देखें तो कथा के अंत का यह भरत वाक्य था। आज जब मैं उन कथा कहानियों में सत्यं (शुद्ध ज्ञान) शिवं (शुभ भाव) सुन्दरं (सहज आंनद) के अद्भुत समन्वय को देखता हूँ तो अनायास ही उस परम्परा के प्रहरियों के प्रति हृदय कृतज्ञता से भर जाता है।
इस उक्ति में प्रथम भाग था ‘कथा गईल बन में’। अब सवाल ये था कि कथा वन में क्यों जाती है? इस सवाल पर विचार करते करते और भारतीय संस्कृति के स्वरूप के संदर्भ में कुछ जानकारी प्राप्त होने के बाद इस रहस्य को मैं थोड़ा बहुत समझने के लायक बना। यह वाक्य लोक के उस अनुभव को पोषित करता है कि जो जहाँ से आया है उसे वहीं फ़िर जाना है। जैसे मिट्टी का शरीर मिट्टी में ही मिल जाना है। इस समझ ने मुझे विश्वास दिलाया कि कथा का उद्गम वन या जंगल है जहाँ समाप्ति के बाद कथा पुनः लौट जाती है।
भारतीय संस्कृति में अरण्य (वन) संस्कृति और ग्राम संस्कृति का अद्भुत समन्वय है। अरण्य जहाँ ज्ञान-विज्ञान, व्यवस्था और सिद्धांत सम्बंधित सॉफ्टवेयर भाग वाले मुद्दों पर काम होता था, वहीं ग्राम में प्रबन्धन, क्रियान्वयन, उपयोग आदि हार्डवेयर सम्बंधित काम होते थे। ये दोनों स्थल अपनी आवश्यकताओं और विशिष्टताओं को एक दूसरे के साथ साझा करते हुए आगे बढ़ रहे थे। इस वाक्य में एक बात और जो स्पष्ट होती है वो ये है कि हमारे यहाँ कथा एक चैतन्य तत्त्व है जिसे पता है कि उसे कहाँ जाना है। आज जब मैं विभिन्न शिक्षणशास्त्रियों को अपने शिक्षण को जीवंत बनाने के लिए विविध प्रकार की विधियों के इस्तेमाल पर ज़ोर देते देखता हूँ तो लगता है कि हम कम पढ़े लिखे लोग जिसे समझते हैं वो सीखाने में जीवंतता का प्रयोग सदियों से कर रहे थे।
उक्ति का दूसरा वाक्य- ‘सोच अपना मन में’ तो और भी विलक्षण अर्थ – गाम्भीर्य को धारण किये हुए है। वह गंभीर अर्थ था विमर्श की प्रक्रिया। हमारे कथाकार कहानी के अंत में एक निष्कर्ष देते थे जो प्रायः सुखांत होता था, लेकिन वह इस सुखांत रूप निष्कर्ष को उतना ही महत्त्व देते थे जितनी दाल में नमक की आवश्यकता होती है। कथा के विमर्श में थके चित्त के लिए निष्कर्ष रूप में यह अल्पविराम होता था। “सोच अपना मन में” यह प्रेरणा थी कि कथा ख़त्म हुई है, विमर्श नहीं और यह विमर्श ही आपको ठहरने नही देगा। वह प्रेरित करेगा कि आप उस विमर्श को अपने मन में रखते हुए स्वयं उस विमर्श परम्परा के ध्वजवाहक बनो।
फ़ेसबुक पोस्ट 06 मई 2020
Leave a Reply