लोक जीवन की समस्त घटनाओं में भारतीय संस्कृति के हीं विविध रूप देखने को मिलते हैं। मुझे याद है कि बचपन में जब मुझे छोटी माता (चिकन पॉक्स) हुई थी, तो मुझे सबसे अलग रखा गया था। मेरे कमरे की विशेष सफाई और उसमें नीम के पतों का अधिकाधिक प्रयोग जैसे- विछावन और सिरहाने आदि में रखना, मुझे अभी भी याद है। मेरी दादी काली माई और शितला माई का गीत गाकर उनसे निहोरा (प्रार्थना) करती थी, कि बालक पर कृपा करें।
वायरस से उत्पन्न इस बीमारी के प्रति लोक जीवन में दैवीय श्रद्धा का क्या कारण है, इसे मेरी तार्किक बुद्धि कभी नही समझ पाती। एक छूत वाली बीमारी और उसके प्रभाव को माता/देवी कहना साधारण तर्कबुद्धियों को अंधविश्वास लग सकता है। लेकिन आज जब कोरोना के शिकार लोगों के छुपने की घटनाएँ समस्या को विकराल रूप दे रही हैं, तो मुझे उन ग्रामीण जनों की सहज श्रद्धा में विशिष्ट वैज्ञानिकता के प्रयोग स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं। छूत की बीमारी जहां अन्य लोगों के मन में मरीज़ के प्रति भय और घृणा उत्पन्न करती है, वहीं मरीज़ के मन में भी हीनता का भाव पैदा कर उसके अंदर वायरस से लड़ने की रोग प्रतिरोधक क्षमता को कमज़ोर करती है। गाँव के लोगों में छूत वाली बीमारी को लेकर #श्रद्धा_मैकेनिज्म बीमार और बीमारी दोनों को लेकर सम्पूर्ण परिदृश्य और व्यवहार को ही बदल देता है। वायरस से संक्रमित व्यक्ति को छुपने की आवश्यकता नहीं पड़ती और वह लोगों की घृणा का शिकार भी नहीं होता। स्वयं पर देवी का प्रभाव होना जहाँ व्यक्ति को हीनता का शिकार नहीं होने देता वहीं परिचर्या में लगे लोगों में भी देवी माँ की सेवा करने से सन्तुष्टि का भाव आता है। अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि लोक जीवन की ऐसी बहुत सी मान्यताएँ और रिवाज़ हैं जिन्हें हम अपनी सामान्य समझ या कहें कि नादानी में नही समझ पाते हैं, लेकिन लोक में व्याप्त इन परम्पराओं और मान्यताओं को समझने में हमें अपनी तार्किक बुद्धि के और विकसित होने का इंतज़ार करना चाहिए।
फेसबुक पोस्ट 25 अप्रैल 2020
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