गांधी जी की ‘साधारण’ एवं ईश्वर में आस्था, अनुभव और तर्क दोनों पर आधारित थी। साधारण, कोई व्यक्ति विशेष नहीं हुआ करता, बल्कि “साधारण” का सामूहिक (collective) पक्ष ही महत्वपूर्ण है। महात्मा गांधी के लिए इसमें ही भारत की सभ्यता का उज्ज्वल पक्ष झलकता था। यह साधारण कैसे अपने निर्णय लेता है रोजमर्रा की ज़िंदगी में, उन निर्णयों के आधार क्या होते हैं; इन्हे देखने जाते हैं तो एक अलग ही प्रकार की जीवन दृष्टि दिखाई देगी जिसमें चराचर के लिए सम्मान और सभी प्राणियों का उचित अधिकार दिखाई देगा, यहाँ अधिकार और ज़िम्मेदारी में बहुत फर्क नहीं है।
यह दृष्टि सिर्फ मानव केन्द्रित दृष्टि से अलग है। इसमें होड़, प्रतिस्पर्धा नहीं है, है तो बहुत ही सीमित मात्रा में। इसमें दिखावे को ओछी नज़रों से देखा जाता है, तो होड़ और प्रतिस्पर्धा अपने आप ही नियंत्रित होती है। इसमें विश्वास की दृढ़ता है, ठहराव है, पर बाहरी, छाती फुलाने वाली कठोरता नहीं है, वह तो विशेष परिस्थिति, लड़ाई वगैरह के समय ही दिखती है, पर शोर्य है। इसमें सहजता है, इसमें अनिश्चितता को स्वीकारा गया है और अंततः इसमें आस्था भी है कि ‘जो होता है, (आखिर में) अच्छे के लिए ही होता है’। इसमें गज़ब की सहजता है। सहजता यानि अंदर जो हो रहा है (अनुभव, भाव, विचार, इच्छा, मन में) और बाहर जो किया जा रहा है, बोला जा रहा है, दर्शाया जा रहा है, इन दोनों, अंदर और बाहर के बीच एक समरसता (alignment) है, विरोध नहीं। इसी से सहज आत्म-विश्वास भी आता है। यही आदमी को ईमानदार भी बनाती है। इसमें अच्छा होना महत्वपूर्ण है, अच्छा दिखना नहीं।
बदलाव एक सार्वभौमिक सत्य है। किसी भी बदलाव के दो पक्ष होते हैं – उसकी ‘स्थिति’ और उसकी ‘गति’। ‘स्थिति’ को धुरी के रूप में, अंदर जो घट रहा है उस रूप में, जो ‘है’ – इस रूप में समझा जा सकता है और ‘गति’ को जो परिधि पर घटता है, बाहर जो प्रदर्शित होता है, या किया जाता है (करने के रूप में), जो दिखता है, दिखाया जाता है उस रूप में, समझा जा सकता है। हमारे अंदर भाव, विचार, इच्छा, अनुभव, कल्पना इत्यादि – एक ‘स्थिति’ होती है। यह शरीर के अंगों द्वारा – बोल के, हाव-भाव से, कुछ करके प्रदर्शित होता है। यह है ‘गति’।
जब ‘गति’ का ‘स्थिति’ के साथ तालमेल होता है तो यही सहजता है। यही असली ईमानदारी है। यह वांछनीय भी है। हर आदमी सहज होना ही चाहता है, पर आधुनिकता ने गति और स्थिति के बीच के संबंध को समरस बनाने में एक अच्छी भूमिका के बजाय दोनों के बीच तादात्म्य न रहे ऐसा ही काम किया है। अंदर कुछ और बाहर कुछ और ही। दरअसल आधुनिकता का अंदर की दुनिया (स्थिति) पर कोई ध्यान ही नहीं है यदि ऐसा कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आधुनिकता ‘गति’ केन्द्रित व्यवस्था है। आपके ज्ञान (जो है, आपकी स्थिति) का आंकलन आपकी डिग्री (गति) से लगाया जाता है। आपका किसी के प्रति सम्मान हो या न हो (स्थिति में) पर आपका प्रदर्शन यदि सम्मानजनक है तो बस काफी है। ध्यान होने पर नहीं, दिखावे पर, प्रदर्शन पर है। इसलिए सारे मूल्य – सम्मान, विश्वास, प्रेम, कृतज्ञता इत्यादि का मूल्यांकन ‘स्थिति’ से हट कर ‘गति’ केन्द्रित हो गया है। मनुष्य सच्चाई को ‘गति’ में ही खोजने लगा है जबकि सच्चाई ‘गति’ में नहीं, ‘स्थिति’ में होती है और यही आधुनिक मनुष्य की असहजता और तनाव, संदेह, पीड़ा का बड़ा कारण है।
भारतीय समाजों में (साधारण में) इसकी गहरी समझ रही होगी। इसलिए यहाँ ऐसी व्यवस्थाएँ भी बनी जहाँ इस सहजता की प्रवृति को प्रोत्साहन मिले, जैसे दिखावे को बुरा माना गया। ज़्यादा भी हो तो उसका दिखावा न हो। कम हो तो समाज की व्यवस्थाएँ उसे एक सीमा के नीचे जाने पर संभाल लें। अन्न दान एवं अन्य दानों को महिमा मंडित करने के पीछे भी यह सोच रही होगी। यह अलग बात है कि आधुनिकता ने इसे भी दिखावे में तब्दील कर दिया, पर आज भी मठों, मंदिरों, गुरुद्वारों और (भारत की) मस्जिदों में लंगर और भंडारे की व्यवस्थाएँ हैं और बड़े पैमाने पर हैं। कई दसियों लाख लोग हर रोज़ इस देश में इस तरह भोजन प्राप्त करते होंगे, जिसमें करोड़ों रुपये और लोगों का श्रम (दान) लगता होगा। विशेष अवसरों पर तो यह संख्या कई गुना बढ़ जाती है। यह कोई मामूली परंपरा नहीं है जिस पर हमे गर्व होना चाहिए। इस व्यवस्था में अमीर और गरीब के बीच भी कोई खास भेद नहीं होता, न ही विभिन्न जातियों और महिला- पुरुष के बीच।
हमारे यहाँ ईश्वर में आस्था, अस्तित्व में, प्रकृति में आस्था, जो हो रहा है – उसमे आस्था में परिणित होती रही है। सभी कुछ ईश्वर की परम सत्ता का हिस्सा है इसलिए वह सब जो मनुष्य ने नहीं बनाया पर बना बनाया है उसमें भी आस्था है। यह एक बड़ी समझ रही है इसलिए हमने हर चीज़ को समझना ज़रूरी नहीं समझा। कोई कीट-पतंग जो नहीं पहचाना गया, उसे भी जीने का हक है, उसकी भी कोई न कोई भूमिका होगी इस अस्तित्व में, जो कुछ दृश्य या अदृश्य रूप से हो रहा है, उसमें।
संभवतः महात्मा गांधी को यह अपने ढंग से, बिना शास्त्रों का विधिवत अध्यन किए, समझ में आया। भारत के साधारण का अवलोकन करके, अपने बचपन की यादों के सहारे, उस समय सुने प्रसंगों और कहानियों को सुन कर, और पैनी दृष्टि (अवलोकन, observation) और intuition के आधार से उन्होंने उस साधारण के सामर्थ्य को पहचाना। आज के पढे लिखे भारतीय में से ये गायब से हो गए हैं। न observation है – और है भी तो पश्चिम से प्रभावित दृष्टि (perception) से। Intuition एक exotic चीज़ हो कर रह गई है, पर intuition संभवतः अपने अंदर विभिन्न संवेदनाओं को खंगालने के बाद एक एहसास जिसमें विश्वास सा होने लगता है, उसको कहा जाता है। यह खंगालने की प्रक्रिया सीधे सीधे तर्क की प्रक्रिया से अलग होती है। हम, अपने विगत से कटे हुए लोगों को, जिन्हें अपने विगत की जानकारी अधिकतर गलत ही मिली है, को अपने intuition का सहारा लेना पड़ेगा। गांधी लेते थे।
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