श्रद्धांजलि – श्री. सुनील गुणवंतराव देशपाण्डे (उर्फ बांसपाण्डे)

सुनील गुणवंत राव देशपाण्डे
(24 मार्च, 1965 – 19 मई, 2021)

अत्यंत दुख का विषय है कि देशभर में बाँस और बाँस कारीगरी के पर्याय बन चुके श्री सुनील देशपाण्डे जी हमारे बीच नहीं रहे। गत 19 मई की रात लगभग 11 बजे नागपूर के किंगसवे अस्पताल में कोरोना के इलाज के दौरान उनका निधन हो गया। यकीन ही नहीं होता कि जिनके बीच रहकर मैंने अपने सामाजिक जीवन की बारहखड़ी सीखी, वह श्री सुनील देशपाण्डे जी आज हमारे बीच नहीं हैं।

श्री सुनील जी का जन्म 24 मार्च, सन 1964 को नागपूर के नजदीक स्थित छिंदवाड़ा जिले में हुआ। उसके बाद अपने पिता जी की नौकरी के चलते उनके परिवार को नागपूर आना पड़ा। यहीं उनका लालन-पोषण हुआ। नागपूर में रहते हुये ही उन्होंने पहले BSW और फिर MSW की पढ़ाई की। अपनी पढ़ाईयों के दौरान ही वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सम्पर्क में आए और उसके सक्रिय कार्यकर्ता बने। इसी दौरान उनकी मुलाकात श्री वीनू काले जी से हुई, जिसके बाद उन्होंने बाँस को अपनी कार्याभिव्यक्ति का माध्यम चुना।

वे नागपूर, बिशुनपुर, चित्रकूट, पांढरकवड़ा के रास्ते होते हुये अंततः सन 1995 में अपनी कर्मस्थली मेलघाट, लावादा पहुँचे। मेलघाट पहुँचने से दो माह पूर्व ही उनका विवाह निरुपमा जी से हुआ। मेलघाट में जाकर रहना और उसको अपनी कर्म-स्थली बनना आप दोनों का ही संयुक्त निर्णय था।

मेलघाट जाने से पहले सुनील जी ने नागपूर में ही वीनू जी के साथ काम किया। उनके मार्गदर्शन में ही उसके बाद वे आदरणीय श्री महेश शर्मा जी के पास विशुनपुर पहुँचे, जो कि तब के बिहार राज्य में स्थित था। वहाँ रहते हुये दिल्ली के एक कार्यक्रम में उनकी मुलाकात नाना जी से हुई, जिसके बाद लगभग दो वर्षों के लिए वे चित्रकूट आ गए, और वहाँ बाँस के काम की शुरुआत की। मध्यप्रदेश का सतना जिला जहाँ चित्रकूट स्थित है, वहाँ स्थापित बाँस की अलख अभी तक न केवल जिंदा है, बल्कि निरन्तर बढ़ रही है। चित्रकूट में रहते हुये सामान्य कारीगरों के साथ मिलकर उनके द्वारा, हजारों दर्शकों के सामने की गई रामलीला वहाँ के लोग आज तक नहीं भूले हैं। अभिनय, हास्य का यह पक्ष उनके जीवन में सदा साथ-साथ ही चला। चित्रकूट के बाद एक तीन-वर्षीय बाँस प्रकल्प के लिए वे पांढरकवड़ा आ गए। यहाँ रहते हुये ही उनकी मुलाकात श्री रवीन्द्र शर्मा गुरुजी से हुई। और, यहीं कार्य के दौरान ही उनकी मेलघाट जाकर रहने की इच्छा दृढ़वती हुई। और अंततः वे सन 1995 में लवादा पहुँचे।

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