धर्मपाल के ब्रिटिशपूर्व भारतसंबंधी कार्य से गुज़रना एक विचित्र संसार में प्रवेश करने जैसा लगता है। इसका एक कारण तो यह कि पुराने भारत संबंधी अधिकतर व्याख्याएँ सांख्यिकीय आंकड़ों से विहीन मात्र भावुक घोषणाओं पर खड़ी रहती हैं या फ़िर पुराने भारत को सामाजिक अंतर्विरोधों के आधार पर कोसने में उत्सुक। ये कोई छिपी हुई बात न है कि ब्रिटिश राज्य के आ जाने से पहले के भारत की जातीय भेद-तर्क के आधार पर अब तीव्र आलोचना की जाती है।
दूसरे यह भी अक्सर सुनने को मिलता ही है कि ब्रिटिश-पूर्व भारत की वैज्ञानिक-तकनीकी उपलब्धियाँ कम ही हैं। दिलचस्प है कि ‘इंडियन जर्नल ऑफ़ हिस्ट्री ऑफ साइंस’ में साल दर साल छपे अनेकानेक शोधपत्रों और भारत में विज्ञान संबंधी कार्यों के उल्लेख के बावजूद उस धारणा को बनाये रखने वाले दल में उत्साह की कोई कमी नहीं है। ठीक ऐसे ही तर्क परम्परागत भारतीय शिक्षा के बारे में भी दिए ही जाते हैं। उन सबको आज हम कैसे देखें!
धर्मपाल के चिंतन का मूल्य पहले से अधिक अब बढ़ जाने का एक ठोस कारण है। पिछले तीस चालीस बरस में हुई ‘कोलोनियल’ या फ़िर ‘पोस्ट कोलोनियल स्टडीज़’ ने हमें यूरोपीय ज्ञान प्रणालियों पर नए सिरे से पुनर्विचार के लिए विवश किया है। दिलचस्प है कि ब्रिटिश ज्ञान मीमांसा की आलोचना करने वाले अधिकतर चिंतक पश्चिम से ही आये हैं। ब्रिटिश राज्य ने किस तरह भारतीय दृष्टि और भारतीय चित्त को बदला – उन सब प्रक्रियाओं का उद्घाटन धीरे धीरे हो रहा है। प्रोफ़ेसर बर्नार्ड कॉन और निकोलस डर्क्स सरीखे विद्वानों के कार्य से हम यह समझ पाए कि किस प्रकार ‘सेन्सस’ यानी ‘जनसंख्या सर्वेक्षण’ भारत में जाति को नया आकार देकर गए।
पद्मनाभ समरेंद्र जैसे विचारक अपने शोधपत्र का शीर्षक ही देते हैं – ‘सेन्सस इन कोलोनियल इण्डिया एण्ड बर्थ ऑफ कास्ट’! उनसे पूर्व सबाल्टर्न अध्ययन समूह से संबद्ध रहे प्रोफेसर बर्नार्ड कॉन ने लिखा -‘द सेन्सस सोशल स्ट्रक्चर एन्ड ऑब्जेक्टिफिकेशन इन साउथ एशिया’! स्पष्ट है कि ये जो जनसंख्या सर्वेक्षण थे – ये सब कोई निष्क्रिय आँकड़ा-जुटाऊ कवायद नहीं रहे होंगे। ये सक्रिय ढंग से भारत की पूरी सामाजिक संरचना को बदल रहे थे और भारतीय चित्त की दृष्टि को भी बदल रहे थे। यही कारण है कि भारतीयों को ही भारत के बारे में समझना समझाना पड़ जाता है।
धर्मपाल इस सारे कार्य से पूरी तरह परिचित न भी रहे हों। लेकिन यदि वे होते तो इस सारे कार्य को देखकर उन्हें संतुष्टि होती कि उनकी दृष्टि एक तरह से सत्यापित ही हुई है।
भारतीय शिक्षा [या किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में मौजूद शिक्षा व्यवस्था] अपने समाज से संयुक्त रही है। शिक्षा कोई ऐसी परिघटना या प्रक्रिया तो है नहीं जो किसी द्वीप पर घटित होती हो। वह सामाजिक ढाँचे के बीचों बीच होती है। तो ये कैसे सम्भव है कि दरकते समाज में शिक्षा बची रह जाए। यही ब्रिटिश भारत में शिक्षा के साथ हुआ। इसका पता तब चला जब पहले गांधीजी ने संकेत रूप में और फ़िर धर्मपाल ने आंकड़ों के साथ बदतर होती स्थिति को व्याख्यायित किया।
ब्रिटिश शासन व्यवस्था में निश्चय ही कई धाराएँ रहीं। उनसे पहले मौजूद क्रिश्चियन पादरियों के भीतर भी अलग-अलग प्रवृत्तियाँ रहीं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पश्चिमी विद्वानों का एक छोटा हिस्सा सचमुच गंभीरता से भारतीय समाज और चिंतन को समझना चाहता था। बावजूद इस बात के कि वे खुद पश्चिमी ज्ञान परम्परा की सीमाओं से बंधे थे। लेकिन ऐसा सभी के साथ नहीं रहा। ज़्यादातर ब्रिटिश अफसर ‘श्रेष्ठता भाव’ से भरे रहे। मैकाले ने भारतीय चिंतन परम्परा के बारे में जो कटु शब्द कहे, उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन वह सब हमें इतना समझाने के लिए पर्याप्त है कि उनका श्रेष्ठता बोध उन्हें भारत को समझने ही न दे रहा था।
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