सत्य सामयिक नहीं होता, सत्य सनातन होता है, सब स्थानों पर सब समय में एक जैसा। आधुनिकता ने इस सत्य के अस्तित्व को नकार दिया है, यह बात चलाई जाती है कि सबका अपना अपना सत्य होता है, शाश्वत सनातन जैसा कुछ नहीं। सत्य को भी subjective बना दिया जाता है। सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि सत्य शाश्वत और सनातन है, किसीका व्यक्तिगत सत्य नहीं हो सकता।
यदि इस बात को सिद्ध व स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ना है, तो पहले तो हमें बहिर्मुखी से अंतर्मुखी बनना होगा और बृहद समाज का भी इस दिशा में ध्यानाकर्षण करना होगा। अस्तित्त्व के आधार से सत्य को समझा जा सकता है। प्रत्येक जीव में यह चाहत होती है कि वह स्वतंत्रता से जिए, दबावमुक्त होकर जिए। दबावमुक्त होकर जीने का अर्थ है अपनी नैसर्गिक वृत्तियों के अनुसार जिए, अपने नैसर्गिक धर्म के अनुसार जिए और यह नैसर्गिक वृत्ति व धर्म सहअस्तित्त्व से फलित व उसको पोषित करने वाले ही हो सकते हैं।
यहाँ स्वतंत्रता और मन मरजी में फर्क करना होगा। मन मरजी में किसी और की कोई फिकर नहीं होती, किसी और का कोई विचार नहीं होता, मन मरजी तो कहीं कहीं self obsession की बात है, जबकि स्वतंत्रता में तो सहअस्तित्त्व का विचार निहित है, एक व्यक्ति की स्वतंत्रता कभी दूसरे की स्वतंत्रता के लिए बाधक नहीं हो सकती, वह केवल सहायक सिद्ध हो सकती है, जबकि एक व्यक्ति की मरजी और दूसरे व्यक्ति की मरजी में टकराव होता ही है। स्वतंत्रता और freedom के बीच के इस भेद को हमें समझना व समझाना होगा।
इस freedom के साथ आधुनिक व्यक्ति की आसक्ति जुड़ी हुई है, मोह जुड़ा हुआ है एवं वह कई सारे भ्रमों से ग्रसित भी है। वह freedom के चक्कर में इतना पराश्रित हो गया है, जितना संभवत: वह कभी नहीं था। ना उसको पता है, उसका खाना कहाँ से आता है, ना उसको पता है, उसका पानी कहाँ से आता है। ना उसके पास कुछ चयन करने की स्वतंत्रता भी है। एक मॉल में नहीं, तो दूसरे में सही, घूम फिरके तो उसे वही खाना है, जो दुकानवाले उसे परोस रहे हैं, यह तो परतंत्रता ही हुई ना; तो ऐसे कई भ्रमों से उसे मुक्ति दिलाने की आवश्यकता है।
इस पूरी बात को खोला जाना चाहिए, समझा जाना चाहिए, समझाया जाना चाहिए। हर किसीसे तो ये बातें हो नहीं सकती, ये बातें तो उनके साथ हो सकती हैं, जिन्हें वर्तमान आधुनिक व्यवस्था से आपत्ति होने लगी है। कोरोना के बाद में यह आपत्ति बढ़ी भी है, क्योंकि दवाई खाने से ठीक हो जाएंगे वाली बात ढह चूकी है और वैसे ही आधुनिकता के अन्य कई लक्षणों से कई लोगों का भरोसा उठ गया है। ऐसे लोगों के साथ ऐसा संवाद हो सकता है।
सत्य और तथ्य में अंतर होता है। नरेंद्र मोदी आज हमारे प्रधानमंत्री है, यह तथ्य है, सत्य नहीं। तथ्य का आधार केवल जानकारी के साथ होता है। सत्य शास्त्र, तर्क एवं अनुभूति तीनों का समर्थन करता है। तथ्य समय के साथ स्थान के साथ बदलता रहता है, जबकि सत्य अचल है, अपरिवर्तनशील है, सनातन है, शाश्वत है। सत्य की स्थापना ही धर्म की स्थापना में परिणित हो सकती है।
एक और करने लायक काम है स्वयं की परिभाषाओं को जानना। धर्म और religion में बहुत अंतर है, लेकिन हम धर्म को ही religion मानने लगे हैं। ऐसी परिभाषाओं के उपर भी विचार होना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों से हमने पश्चिम से आने वाली बातों को बिना जाँचे परखे स्वीकार करना शुरू कर दिया है, इन विषयों की भी समीक्षा हो, यह इच्छनीय है।
सुनिए पवन गुप्त जी की वाणी में Deconstructing Modernity शृंखला का दशम व अंतिम चरण: What is to be done?।
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