राग एक, अदायगी अनेक।
पेड़ की प्रजाति एक, परंतु फिर भी उसी प्रजाति के दो पेड़ एक जैसे नहीं। सब अपनी अपनी छटा, अपनी विशिष्टता लिए हुए, पर मूल में एक, उसमें समानता।
विविधता को परंपरा में, भारतीय दृष्टि में, संभवतः ऐसे ही देखा गया है। मूल में नियम बसे होते हैं, जो निराकार, अगोचर होते हैं, उनमें समानता होती है। इस निराकार पक्ष को “स्थिति” कहा गया है। जो दिखता है, जो करने और दिखने वाला पक्ष है, साकार है, उसे “गति” का नाम दिया गया है। उसमें विविधता है; पर वह विविधता गहरे में किन्ही नियमों (नैसर्गिक, शाश्वत अथवा परंपरा से/में बनाए गए) से बंधी रहती है, संयमित रहती है। यह धुरी, विविधता को खूबसूरती प्रदान करती है, उसे संयमित करती है। यह संयम – धुरी में एक, पर अदायगी में अलग – साधना है; साधना पड़ता है।
आधुनिकता को संयम स्वीकार नहीं है। आधुनिकता संयम को बंधन मानती है और हर प्रकार के बंधन को अपनी स्वतन्त्रता में बाधा मानती है। परंपरा और आधुनिकता में यह एक बुनियादी भेद है। आजके आधुनिक मानव को कभी न कभी तय करना होगा, कि जीवन के उत्कर्ष और श्रेष्ठता के लिए किन्हीं मूलभूत नियमों को पहचान कर, संयमित हो कर, जीना है या हर प्रकार के “बंधनों” (नियमों) से मुक्त (अवहेलना कर के) होकर जीने का प्रयास करना है।
संयम में रहते हुए ही मुक्त हुआ जा सकता है। यह सोच परंपरा में रही है। गहरे में, चिंतन करने पर, हर एक व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंच भी सकता है। संयमित होकर ही – भारत की सभ्यतागत दृष्टि में – स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। संयम और स्वतन्त्रता एक दूसरे के विरोध में नहीं, वरन एक से हो कर दूसरे तक पहुँचने का मार्ग है। एक तरफ गहरे में, मूलभूत नियमों की स्वीकार्यता और उससे अपने को संयमित करते हुए, करने और दिखने वाले, (इंद्रिय) सापेक्ष पक्षों में, प्रकटण में, खुली छूट। इस दृष्टि में – स्वतंत्रता हमें प्राप्त होती है, जब हम उसके योग्य होते हैं। अपने को योग्य बनाते हैं, साधना के बल पर।
आधुनिकता के शब्दकोष में, संयम तो है ही नहीं। ऐसा मान लिया गया है, कि संयम में बंधन है और कोई भी बंधन आधुनिकता को स्वीकार्य नहीं। इस दृष्टि में स्वतंत्रता का अर्थ ही गायब है। इस दृष्टि में सिर्फ ‘फ़्रीडम’ है। फ़्रीडम और स्वतन्त्रता एक दूसरे के पर्याय नहीं। फ़्रीडम प्राप्त नहीं होता, उसे लगभग (किसी दूसरे से) छीन कर, या मांग कर, हाँसिल किया जाता है। कोई देता है और दूसरा लेता है। इसमें निहित है, कि फ़्रीडम लेने वाला एक तरफ और (फ़्रीडम) देने वाला दूसरी तरफ और निश्चित ही, देने वाला, लेने वाले से ज़्यादा शक्तिशाली होगा। तो फ़्रीडम में बराबरी ढूँढना अपने आप में विरोधाभास है। पर आधुनिकता इस प्रकार के गहरे विरोधाभासों को देखना नहीं चाहती।
यह अस्तित्व, जिसके हम हिस्से हैं, इसमे वस्तुएँ हैं, इकाइयाँ हैं और इन सबकी तथा जिस व्यवस्था के अंतर्गत यह सब एक दूसरे से समाधानित हैं, जुड़े हैं, इन सबकी वास्तविकताएँ हैं। इन्हें समझना आवश्यक है, क्योंकि हम इन अनगिनत विभिन्न इकाइयों में से मात्र एक हैं और हम इन सभी से संबन्धित हैं और इनसे हमारा सरोकार भी है। वास्तविकताओं के दो पक्ष हैं। ये दोनों पक्ष एक दूसरे से कुछ उसी तरह जुड़े होते हैं, जैसे एक सिक्के के दो पहलू। एक पहलू अदृश्य, निराकार या इंद्रिय निरपेक्ष – ‘होने’ वाला या ‘है’ वाला है – और दूसरा इंद्रिय सापेक्ष – ‘करने’ और ‘दिखने’ / ’दिखाने’ या ‘लगने’ वाला पहलू है। जैसा पहले कहा गया है, कि इन दो पहलुओं को ‘स्थिति’ और ‘गति’ का नाम दिया गया है। हर एक वास्तविकता का अर्थ समझना पड़ता है, उसका अनुभव करना होता है। शिक्षा का यही उद्देश्य है या होना चाहिए। यहाँ वास्तविकता का तात्पर्य सिर्फ भौतिक वास्तविकताओं से नहीं है, वरन उन वास्तविकताओं से भी है, जो निराकार और इंद्रिय निरपेक्ष होती हैं। उदाहरण के लिए सम्मान, विश्वास, करुणा, प्रेम, क्रोध, भय, लोभ, मोह इत्यादि का भाव या स्वतन्त्रता, स्वराज, जो अगोचर होते हुए भी, वास्तविकता है। भले ही वास्तविकता का अर्थ समझा जाय या न जाय, उसे सही समझा जाय या गलत, उसका अनुभव हो या न हो, वास्तविकता को उससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क समझने / न समझने वाले को पड़ता है, क्योंकि जो जैसा समझता है, उसी प्रकार उसमें भाव उत्पन्न होते हैं, उसी अनुसार वह कार्य और व्यवहार करता है।
वास्तविकता तो बस है। वास्तविकताओं का अर्थ, उसका अगोचर पहलू है। वास्तविकता है; अर्थ है; शब्द या नामकरण, किया जाता है – उसे बोला, लिखा, सुना और पढ़ा जाता है। एक ही अर्थ के अलग अलग भाषा – बोलियों में अलग अलग शब्द होते हैं। एक ही भाषा में भी एक से अधिक शब्द हो सकते हैं। इस प्रकार अर्थ, भाषातीत होते हैं और शब्द, भाषा में होते हैं। अर्थ एक, और शब्दों की / में विविधता होती है। इस विविधता में सौंदर्य है। साथ ही अलग अलग (पर्यायवाची) शब्द, अर्थ की अनेकांगी विशेषताओं को उजागर करते हैं। उनकी अपनी विशेषता होती है। यहीं सौंदर्य है, भाषा का सौंदर्य। साथ ही शब्दों का इस्तेमाल जब सिर्फ दिखावे के लिए होने लगता है, तो उसमें विकृति और भौंडापन आता है; सच्चाई और सौंदर्य खो जाता है।
जीवन दृष्टि, सिद्धान्त, शाश्वत नियम, शाश्वत सत्य, इत्यादि भी, अर्थ जैसे ही, अगोचर होते हैं – ‘स्थिति’ की कोटि में आते हैं। ये हैं और इन्हे समझना पड़ता है, अनुभव (करना) होता है। यह ‘होने’ या ‘है’ वाला संसार है। ‘करने’ या / और दिखने वाला संसार, साकार / प्रत्यक्ष / व्यक्त संसार, इस ‘है’ वाले संसार पर आधारित हो सकता है (और भ्रम या असत्य पर भी हो सकता है)। जैसे सम्मान के भाव (स्थिति) को, अनेक प्रकार से, समय और स्थान को ध्यान में रखकर, अभिव्यक्त किया (गति) जा सकता है। विविधता इसी करने और दिखने वाले संसार में होती है। जब यह करने वाला संसार सत्य (शाश्वत) की बुनियाद पर खड़ा होता है तो गति (अभिव्यक्ति) में सहजता होती है, यह नैसर्गिक होती है, प्राकृतिक होती है। यही इसका सौंदर्य है। यह मनुष्य के अंदर उर्ध्वगामी भावों को प्रोत्साहित करती है और ‘स्थिति’ और ‘गति’ में लय, सामंजस्य, सहजता को जन्म देती है। यही असली और गहरी ईमानदारी (authenticity) है।
इसके विपरीत, असत्य या भ्रम पर आधारित दिखने / करने वाला संसार अपने आप में भ्रम फैलाने और बढ़ाने का काम ही कर सकता है इसलिए वैसी विविधता का कोई अर्थ नहीं, वह कृत्रिम, भ्रामक और बदसूरत होती है जो मनुष्य में ईर्ष्या, द्वेष, होड़, इत्यादि विकारों को प्रोत्साहित करती है। जैसे सम्मान का प्रदर्शन (गति), सहज रूप से, सम्मान के भाव (स्थिति) से निकले ऐसा ज़रूरी नहीं है। सम्मान का (गति में) दिखावा भी हो सकता है, जिसका उसके भाव से या स्थिति से कोई लेना देना नहीं। यह गति कृत्रिम, बे-मानी और धोखा देने वाली होती है। यह सम्मान के भाव से नियंत्रित नहीं है। इसलिए यहाँ प्रदर्शन या गति में विविधता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यहाँ प्रदर्शन खोखला है, बगैर धुरी के।
आधुनिकता में स्थिति की अनदेखी करते हुए इसी प्रकार की गति को प्रोत्साहित किया जा रहा है और उसे विविधता कहा जा रहा है। इस विविधता ने ‘नयेपन’ की बीमारी को जन्म दिया है। यहाँ ‘नये’ को मौलिकता मान लिया गया है, पर मौलिकता तो मूल (धुरी) से जुड़े हुए बगैर हो ही नहीं सकती!
क्रमश:
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