विविधता – परंपरा में व आधुनिकता में : भाग २/२

आज की आधुनिकता की बुनियाद शाश्वत सत्य पर नहीं खड़ी है। इतना ही नहीं, आज की आधुनिकता में तो सत्य की शाश्वतता को ही नकार दिया गया है। ‘सब का अपना अपना सत्य होता है’ को शाश्वत सत्य की तरह स्थापित कर दिया गया है। सबकी अपनी अपनी पसंद / ना-पसंद होती है; सबका अपना अपना विचार होता है; सबकी अपनी अपनी कल्पना होती है, पर सत्य? वह कैसे “अपना”, व्यक्तिगत हो सकता है? अगर सत्य है, तो वह तो सार्वजनिक और सार्वकालिक ही होगा, पर आधुनिकता ने अपने प्रचार के बल पर एक असत्य को सत्य पर आरोपित कर दिया है।

इसे और खोला जाए, तो आधुनिकता ने (पढे-लिखे) मनुष्य का समस्त ध्यान सिर्फ ‘गति’ पर केन्द्रित कर दिया है। ‘गति’ और ‘स्थिति’ के बीच, ‘स्थिति’ की प्राथमिकता को भूला दिया गया है। 1) ‘स्थिति’ की समझ, उसकी वरियता और 2) ‘स्थिति’ का ‘गति’ से सहज संबंध, इन दोनों सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्यों को, मुख्यतः (आधुनिक) शिक्षा के जरिये और फिर मीडिया और आधुनिक तंत्र के जरिये मनुष्य के ध्यान से लगभग ओझल कर दिया है।

पर फिर भी ‘स्थिति’ की वास्तविकता तो है ही। उस पर से ध्यान हटा दिया गया है, परंतु वह लुप्त नहीं हो गई है। मनुष्य में भाव तो उत्पन्न होते ही हैं, होते भी रहेंगे, बावजूद artificial intelligence और robots के। ‘गति’ का सहज संबंध ‘स्थिति’ से होना चाहिए। गति, स्थिति से सहज निकलनी चाहिए। प्राथमिकता ‘स्थिति’ की होनी चाहिए – वहाँ गड़बड़ कर दी गई है / हो गई है। निर्णय करने का निर्णायक बिन्दु ‘स्थिति’ से हट कर ‘गति’ पर केन्द्रित हो गया है। सम्मान, विश्वास, कृतज्ञता, प्रेम इत्यादि जो मनुष्य की मूलभूत चाहना में हैं, उनको प्राप्त करने के लिए उन्हे ‘गति’ में – करने में, दिखने / दिखाने में ढूंढा जाने लगा है। यह प्रवृत्ति एक तरफ व्यक्तिवाद, होड़, प्रतिस्पर्धा और द्वेष को प्रोत्साहित करती है और दूसरी तरफ हर तरह के बाज़ार को – सिर्फ भौतिक वस्तुओं के बाज़ार को ही नहीं, शिक्षा के बाज़ार, मिडिया के बाज़ार और सबसे बढ़ कर विचारों के बाज़ार को – प्रोत्साहित करती है।

तथ्य (fact) और सत्य, जो सनातन होता है, दोनों में भेद है। तथ्य सामयिक होता है और स्थान विशेष का होता है, परंतु आधुनिकता ने इस महत्वपूर्ण भेद को धूमिल कर दिया है। इतना ही नहीं, तथ्य ही सत्य पर आरोपित हो गया है। उसी तरह जानकारी या सूचना (information) ज्ञान पर आरोपित हो गई है। इसका सबसे जबरदस्त और मजेदार उदाहरण general knowledge या सामान्य ज्ञान की किताबें हैं। इनमें पहले पन्ने से लेकर आखिर के पन्ने तक जानकारी ही जानकारी रहती है, पर कहा जाता है – सामान्य ज्ञान! इस तरह के प्रकरण और प्रक्रियाओं की भरमार हैं, जिन्हें गंभीरता से देखने समझने की ज़रूरत है। इसमें जानकारी, जो एक ऐसी चीज़ है जिसे याद रखना होता है, जो सामयिक है, उसे ज्ञान, जो एक बार हो जाय तो अपना हो जाता है और जिसे याद रखने की ज़रूरत नहीं रहती, उस पर हावी कर दिया गया है। यहाँ तक कहा जाने लगा है, कि जानकारी ही ज्ञान है। यह हास्यास्पद तो है ही, पर अत्यंत खतरनाक भी है।

खतरनाक इसलिए है, कि इसने आधुनिक मानव की सोचने समझने की क्षमता को ही कुंद कर दिया है। एक तरफ उसे अपने पढे – लिखे और ‘तर्कसंगत’ ढंग (rationally) से सोचने के एहसास (भुलावे) ने भयंकर अहंकार से भर दिया है और दूसरी तरफ उसे स्वयं की गहरे में बनी हुई मान्यताओं का पता ही नहीं है। वह मान कर चल रहा है, पर इस भुलावे में रहता है, कि वह जानता है। पर जानने और मानने में तो बड़ा महत्वपूर्ण फर्क है। वह इस भुलावे में है, कि वह स्वतंत्र रूप से सोच सकता है परंतु असलियत इससे बिलकुल भिन्न है। वह उतना ही सोच पाता है, जितना आधुनिकता उसे सोचने को बाध्य करती है। कम्प्यूटर और मशीनों को चला लेना इस बात का प्रमाण नहीं है, कि वह स्वतंत्र रूप से सोच सकता है। जो लोग आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से मुक्त हैं, उन्हें कम से कम जानने और मानने का भेद प्रायः स्पष्ट होता है, पर आधुनिकता के प्रभाव में जी रहे अधिकांश लोग मानते हुए भी इस भ्रम में रहते हैं कि वे जान रहे हैं और उनका अहंकार, एक कवच की तरह, इस भेद को स्पष्ट भी नहीं होने देता।

आधुनिक मानव लगभग पूरी तरह आधुनिकता की गिरफ्त में है। वह बुरी तरह से परतंत्र है। भौतिक वस्तुओं और जीवन के प्रत्येक आयाम (शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि) में तो है ही, परंतु अपने सोचने समझने में भी वह स्वतंत्र नहीं रह गया है। वह अपने को विचारशील मानता है, पर असलियत यह है, कि उसके विचारों की गहराई उतनी ही है, जितनी उसके कपड़ों की। दोनों ही सामयिक फ़ैशन से प्रभावित होते रहते हैं। उनमें मौलिकता प्रायः नहीं है।

यह सब तो वैश्विक स्तर पर हो रहा है, परंतु हम भारतियों की हालत और भी नाजुक है। वह इसलिए कि भारतीय रोग का संबंध सिर्फ आधुनिकता से ही नहीं है। हमने तो पहले इस्लाम के राज्य में भयंकर हिंसा, आतंक और भय को झेला और फिर अंग्रेजों के युग में इन सब के साथ साथ आत्म-संकोच, अपने प्रति शर्मिंदगी और हीनता के भाव को भी झेलना पड़ा। ये घाव गहरे हैं, पुराने हैं। आज का मनोविज्ञान भी इस तरह के सामूहिक घावों का असर 7 से 12 पीढ़ियों तक मानता है। तो एक तरफ आधुनिकता की मार और दूसरी तरफ पुराने रिसते हुए, पर किसी तरह मरहम-पट्टी करके छुपा कर रखे हुए गहरे घाव – इन दोनों से हमारा समाज ग्रसित है। इसका इलाज इन दोनों बीमारियों को समझे बिना संभव नहीं। पुराने घावों को ईमानदारी से देखने और समझने की आवश्यकता है। घावों को छुपा कर उनका इलाज नहीं किया जा सकता। उन्हें हिम्मत से देख कर खुली हवा और धूप देना ही उनका इलाज है और आधुनिकता का इलाज उसके मोहजाल और मायाजाल को उजागर करके उससे मुक्त होने में है। भ्रम – मुक्ति और मोह – भंग। उसके बाद भारत की पैठ में वह शक्ति अभी भी है, कि वह अपनी जड़ों पर अपनी आधुनिकता को प्रस्फुटित कर देगा।

समाप्त |


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