‘भिक्षावृत्ति’ की भारत वर्ष में एक सुदीर्घ परम्परा रही है। ‘भिक्षाटन’ को अन्य ढेरों वृत्तियों की तरह एक वृत्ति यानि जीवनयापन का साधन माना गया है। वे समाज में मनोरंजनकर्ता; कलाकार (गीत – संगीत – नृत्य – अभिनय, आदि); घर-पहुँच ग्रंथालय; सूचना प्रदानकर्ता; गाँव एवं पंचायतों के अतिविशिष्ट मामलों के समाधानकर्ता; अपरिग्रह, निर्लिप्तता आदि के माध्यम से आध्यात्मिक जीवनशैली के प्रेरक; जाति-पुराण वाचक; वंशावली लेखक-गायक; विरुदावली गायक आदि कई भूमिकाएँ निभाते हैं। इन महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं के कारण उन्हें समाज में व्यवस्थित किया गया था।
यह ‘भिक्षावृत्ति’ आजकल शहरी क्षेत्रों में पनपी ‘भीखमँगई’ या ‘भीख’ आदि से एकदम अलग परिकल्पना है। ‘भीखमँगई’ या ‘भीख’ बहुत मजबूरी में किया जाने वाला काम है। जब हमारा वृहत समाज, लोगों को किसी भी तरह का रोजगार उपलब्ध कराने में अक्षम होता है, तब वे ‘भीख’ माँगने के लिए मजबूर हो जाते हैं। कुछ जगहों पर यह एक ‘संगठित अपराध’ का हिस्सा भी बना जाता है। इसकी जड़ में भारत का अंग्रेजी शासन और उसके बाद से चला आ रहा ‘आधुनिक व्यवस्था तन्त्र’ रहा है। ‘भिक्षावृत्ति’ का ‘भीखमँगई’ की दिशा में बढ़ने का सबसे शुरुआती कारण अँग्रेजों द्वारा सन 1872 में लागू किया गया ‘अपराधी जनजातीय अधिनियम’ था, जहाँ भिक्षावृत्ति की बहुत सी जातियों को समाज में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं के कारण अपराधी घोषित कर दिया गया था। किसी अन्य रोजगार में व्यवस्थित न होने के कारण वे या तो जंगलों की ओर चले गए या समाज में ‘भीखमँगई’ की ओर अग्रसर हुए।
इसके विपरीत ‘भिक्षावृत्ति’ की समाज की बहुत ही महत्वपूर्ण, सुसम्पन्न एवं सुदृढ़ परम्परा रही है, जिसके अंतर्गत समाज में ढेरों लोगों को विभिन्न महत्वपूर्ण भूमिकाओं में व्यवस्थित किया गया था। वे आजकल की तरह किसी मजबूरी में यह कार्य करने को बाध्य नहीं थे, बल्कि इन पीढ़ीगत कार्यों को पीढ़ियों से करते आ रहे थे। इन लोगों में परम्परागत साँप, बैल, बन्दर, रीछ, गधे, घोड़े आदि के माध्यम से विभिन्न तरह की जानकारी देने वाले, सुबह-सुबह नींद से जगाने वाले, सुबह से ही विभिन्न तरह के गीत-संगीत सुनाने वाले लोगों से लेकर बहरूपिये, नर्तक, कठपुतली कलाकार और कई तरह के कहानी कार, चारण, भाट, वंशावली-लेखक, जाति पुराण वाचक/गायक, हरबोले, दोजनिया, वसुदेवा आदि शामिल थे। वर्तमान की कई प्रसिद्ध भारतीय प्रदर्शन परम्पराएँ – जैसे माँगनियार, लाँगा, पंडवानी, कालबेलिया, बाउल, नाचा, पटचित्र पेंटिंग आदि इसी भिक्षावृत्ति परम्परा से निकली हैं।
आज भिक्षावृत्ति के कुछ समुदाय ‘पारम्परिक कलाकारों’ की सामान्य श्रेणी का हिस्सा बन गए हैं, पर अधिकांश अन्य विलुप्ति की कगार पर हैं। इन लोगों की अपनी स्वयं की स्मृति भी लगातार क्षीण होती जा रही है। उन्हें ‘भिखारी’ या इस तरह के अन्य नामों का ठप्पा लगा दिया गया है जो कि और कुछ नहीं, बल्कि आधुनिक व्यवस्था तन्त्र में ‘भिक्षा’ की गलत व्याख्या के कारण ही पैदा हुआ है।
इस संदर्भ में गत 27 से 29 दिसम्बर को मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के इन्द्राना गाँव में स्थित जीविका आश्रम परिसर में देश का प्रथम और अनूठे ‘भिक्षावृत्ति उत्सव’ का आयोजन किया गया। जिसमें देशभर से भिक्षावृत्ति समाज के कुछ अंतिम बचे लोग एवं भिक्षावृत्ति व्यवस्था पर एक लंबे समय से कार्य कर रहे विद्वतगण एकत्रित हुए। तीन दिवसीय इस आयोजन में पारम्परिक भोजन, गीत, संगीत, नृत्य, अन्य प्रदर्शन, इतिहास वार्ता, आपसी चर्चा, एक विशिष्ट कारीगर हाट बाज़ार, तीन विशिष्ट प्रदर्शनियाँ, नजदीकी नदी, जंगल एवं पर्वत भ्रमण आदि बहुत कुछ था।
भिक्षावृत्ति उत्सव में
देश भर के …
• 6 राज्यों से 21 भिक्षावृत्ति मंडलियाँ
• 7 राज्यों से 13 विशेषज्ञ
• 15 राज्यों से 125+ प्रतिभागी एवं आश्रम परिवार सदस्य
• 10+ स्थानीय कारीगर समूह
• 200+ अन्य स्थानीय प्रतिभागी
शामिल हुए।
जुलूस और कारीगर यंत्र —
कार्यक्रम का शुभारंभ शोभा यात्रा से हुआ, जिसमें भिक्षावृत्ति समूह, कारीगर और प्रतिभागियों का बड़ा जमावड़ा जीविका आश्रम से इंद्राना के बर्रा मंदिर की ओर निकला। जुलूस में स्थानीय लोगों ने भी जमकर भाग लिया। जुलूस अंत में जीविका आश्रम के पारंपरिक ‘कारीगर यंत्र’ पर आकर रुका। इसी कारीगर यंत्र पर दीप प्रज्वलन से उत्सव का उद्घाटन हुआ। आश्रम के प्रमुख प्रेरणा स्रोत स्वर्गीय रवीन्द्र शर्मा जी का स्मरण किया गया।
भिक्षावृत्ति लोक–कला प्रदर्शन —
उत्सव के दौरान पूरे दिन भर देश के विभिन्न राज्यों से पधारे सभी भिक्षावृत्ति समूहों ने अपनी अपनी भिक्षावृत्ति कला का प्रदर्शन किया। पहले दिन की शाम का आयोजन बहुत ही भव्य रहा। जबकि वर्षा-बाधित दूसरे दिन के प्रदर्शन अलग-अलग स्थलों पर चले। पहले दिन की शाम को जोधपुर, राजस्थान से पधारे लँगा समुदाय के सदस्यों ने इतना जबरदस्त समाँ बांधा, कि सभी उपस्थित सदस्य झूमने के लिए मजबूर हो गए। उनके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल से पट्टचित्र कथाकार; तेलंगाना से रूंजा कथा, बैंदल कथा, वीरनालू, जमदिकालु, थोटी; महाराष्ट्र से बहरूपिए और मध्यप्रदेश से वसुदेवा, दुलदुल घोड़ी एवं ढोल पार्टी ने प्रदर्शन किया।
दूसरे दिन, तेलंगाना के रुंजा कोठालु, दक्कालू, किन्नरा, बुडिगा जंगम, प्रधान और बाल-संथुलु, वहीं महाराष्ट्र से बहुरूपिये, मरगम्मा, नाथ-पंथी जोगी, घुमन्तु भील, मसान जोगी और मध्य प्रदेश से बाना गायकी, शेर नृत्य, आदि भिक्षावृत्ति मँडलियों ने अपनी विशिष्ट कला के प्रदर्शन से सभी लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
हालाँकि, लोग पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि जैसे विविध प्रदेशों से आए थे, लेकिन इनके मध्य भाषा कभी बाधा नहीं बनी। उल्टा इस विविध यजमानी प्रथा की झलक सहज ही देखने को मिली।
हिरण नदी का सौंदर्य और शंकरगढ़ मंदिर के दर्शन —
उत्सव के दूसरे एवं तीसरे दिन की शुरुआत प्रकृति और अध्यात्म के संगम से हुई। प्रतिभागियों और भिक्षावृत्ति समुदाय के लोगों ने इंद्राना गाँव की हिरण नदी के तट की सैर की और जंगल के बीच, शंकरगढ़ पहाड़ी पर स्थित मंदिर में दर्शन किए। इस आध्यात्मिक और प्राकृतिक अनुभव ने सभी के मन में नई ऊर्जा का संचार किया।
बरसा में भी नहीं फीका पड़ा उत्साह —
उत्सव के दूसरे दिन यानि 28 दिसम्बर को जबलपुर में आकस्मिक रूप से हुई जोरदार बारिश ने व्यवस्थाओं में कुछ विघ्न तो डाला, पर साथ ही उसने इस उत्सव को और भी निखार दिया। बहरूपिए नए–नए भेष बनाकर घूमते रहे, कभी गुरु–चेला, तो कभी छत्रपति शिवाजी। कभी हनुमान जी, तो कभी भोले शंकर!
प्रदर्शन और सत्र की जगहें और कार्यक्रम का स्वरूप थोड़ा बदला, लेकिन कार्यक्रम और भी ज्यादा उत्साह जोर–शोर से हुआ। विपदा के समय निराश होकर बैठने की बजाय लोगों ने और भी अधिक उत्साह से अपने-अपने प्रदर्शन करके सभी लोगों का मनोबल बनाये रखा। प्रतिभागियों ने इस सबके माध्यम से अनपेक्षित और अप्रत्याशित परिस्थितियों में भी संयम और उत्साह बनाये रखने की प्रत्यक्ष अनुभव किया।
विशिष्ट प्रदर्शनियाँ —
उत्सव के दौरान जीविका आश्रम परिसर में तीन विशिष्ट प्रदर्शननियाँ भी लगाई गईं। स्थानीय बाँस कारीगर श्री हल्के वंशकार जी ने पिछले कुछ वर्षों में जीविका आश्रम के लिए बाँस के विविध पारम्परिक बर्तन, आदि बनाए हैं। एक प्रदर्शनी उनके बनाए बाँस के सामानों की थी। दूसरी प्रदर्शनी जीविका आश्रम में अभी तक एकत्रित पारम्परिक रसोई के सामानों की थी। इन सामानों में पत्थर, लोहे, मिट्टी, पीतल, ताँबे आदि के रसोई के सामान शामिल थे। ये दोनों ही प्रदर्शनियाँ चंडीगढ़ से पधारे श्री जतिन्दर मान एवं लुधियाना से आईं सुश्री इरीना के सौजन्य से लगाई गईं, जिसमें अन्य प्रतिभागियों ने पूरा सहयोग दिया। तीसरी प्रदर्शनी लखनऊ से पहुँचे श्री मनीष जी के सौजन्य से लगाई गई, जिसमें पारम्परिक ग्रामीण जीवन एवं भिक्षावृत्ति के विभिन्न प्रारूप प्रदर्शित किये गए।
भिक्षावृत्ति मंडलियों के साथ कार्यशालाएँ —
उत्सव के दौरान कुछ भिक्षावृत्ति मँडलियों के साथ विशेष कार्यशालाओं का आयोजन भी किया गया, जिसमें भिक्षावृत्ति मँडलियों ने गीत-संगीत-नृत्य-नाट्य मिश्रित प्रदर्शन किये और उसके बारे में जानकारी साझा की। कार्यशाला में प्रतिभागियों ने मंडलियों से उनके इतिहास, रंग–ढंग, उनके जजमान, उनके साथ उनके संबंधों और वर्तमान स्थितियों, इत्यादि के बारे में जानकारी प्राप्त की। जोधपुर, राजस्थान से आए लँगा समुदाय, अमरावती, महाराष्ट्र से बहुरूपिये, जबलपुर, मध्य प्रदेश के शेर नृत्य, दुलदुल घोड़ी, बाना गायकी, वसुदेवा समुदाय के लोगों ने इन कार्यशालाओं को अंजाम दिया। कार्यशालाओं ने उपस्थित विद्वानों और प्रतिभागियों को विभिन्न समुदायों की कला और संस्कृति से रूबरू कराया और उनके प्रति सम्मान की भावना जगाई।
प्लास्टिक मुक्त रहा पूरा आयोजन —
आयोजन की एक प्रमुख बात इसका ‘प्लास्टिक मुक्त’ रहना रहा। पूरे आयोजन में कुर्सियों के अतिरिक्त कहीं भी प्लास्टिक का उपयोग नहीं किया गया। परिसर में फ्लेक्स, आदि की जगह कपड़े और चार्ट पेपर पर हाथ से लिखे सुन्दर बैनर और पोस्टर थे। भोजन में प्लास्टिक की प्लेट की जगह, सुपारी के पत्तों से बनी प्लेट उपयोग में लाई गईं। चाय प्लास्टिक और पेपर कप की जगह मिट्टी के कुल्हड़ों में परोसी गई। परिसर फूलों, आम के पत्तों, पुरानी साड़ियों की सजावट से और भी सुन्दर हो चुका था। प्रकृति के मध्य स्थित आश्रम परिसर में पूरा आयोजन ही प्रकृति सम्मत रहा।
कार्यक्रम में कुछ गणमान्य अतिथि भी पधारे थे, जिन्होंने भिक्षावृत्ति से जुड़े समुदायों के साथ कई दशकों तक काम किया है और उन्होंने भिक्षावृत्ति से जुडे समुदायों की वृहत समाज में सक्रिय भूमिका के विषय में भी रोचक बातें रखी थी, जिन्हें सार्थक संवाद के आनेवाले अंक में प्रकाशित किया जाएगा।
क्रमश:
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