Video Series: Deconstructing Modernity: (viii) Entrapment in Material Realm

शब्द और अर्थ एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। शब्द की सार्थकता अर्थ के सही संप्रेषण में है, शब्द अर्थ के उपर निर्भर करता है। शब्द का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, जबकि अर्थ स्वयं में प्रमाणित है, अर्थ का शब्द के उपर आलंबन नहीं है।
हमारा पूरा ध्यान अर्थ की दुनिया से हटकर शब्द की दुनिया के उपर चला गया है। शब्द की दुनिया इंद्रियों की दुनिया (sensorial world) है, जबकि अर्थ की दुनिया में मनोभावों की प्रधानता है। शब्द की दुनिया में तुलना हो सकती है, प्रतिस्पर्धा हो सकती है, इन सबसे उत्पन्न ईर्ष्या हो सकती है, किसीको हराने का मद हो सकता है, किसीसे हारने का अवसाद हो सकता है और यही रचनाएँ बाजारतंत्र के अनुकूल हैं।

ये ऐसी रचनाएँ हैं, जो समाज की आवश्यकता व इच्छाओं (needs and wants) के बीच के भेद को परखने की क्षमता को धूमिल कर देती हैं, ये रचनाएँ आपकी अभिलाषाओं (wants) को आपकी इच्छाओं को आपकी कामनाओं को आपके सामने आपकी आवश्यकता (needs) के स्वरूप में प्रस्तुत करती हैं।
आज से तीन चार महीने पहले हमने जिन apps का नाम भी नहीं सुना था, आज वे हमारी आवश्यकता बन गई हैं, आज से दस बारह वर्ष पूर्व बिना स्मार्टफोन के जीना कोई बड़ी बात नहीं होती थी, जबकि आज उसे असंभव सा मान लिया जाता है, कुछ ऐसा ही सभी आधुनिक उत्पादों के बारे में कहा जा सकता है।
इन बातों को समझे बिना बाजारवाद को समझना कठिन है। आधुनिक राजतंत्र – आधुनिक राष्ट्र राज्य व्यवस्था (the concept of nation state) भी इसी बाजारवाद, उपभोक्तावाद, दिखावा, तुलना और इन सबसे जुड़े हुए व्यक्तिवाद का समर्थक है। यही व्यक्तिवाद freedom की आधुनिक परिभाषा के साथ भी जुड़ जाता है। व्यक्तिवाद प्रत्येक व्यक्ति की स्वयं की छवि बनाने की बात करता है।
freedom के आधुनिक विचार की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है, वह केवल इतनी सी बात है कि मेरी मरजी। इस मेरी मरजी की जड़ में कई बार लोभ और लालच को खुलकर बढ़ावा देने की भी बात चलती है। जैसे लोभ और लालच मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्तियों में है, वैसे ही भय भी मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्ति है। मेरी मरजी चलाने की बात की आड़ में भय के आधार से भी बाजारवाद को बढ़ावा देने की बात चलती है।
परंपरा में दिखावा करने को ठीक नहीं माना जाता, दिखावा करने वाला व्यक्ति स्वयं तो नकलची जीवन जीने लगता है और दूसरों में भी ईर्ष्या उत्पन्न करता है, अत: परंपरा में दिखावे का निषेध रहा है, जबकि आधुनिकता में तो व्यक्ति स्वातंत्र्य की बात आती है, उसमें दिखावा करने वाले को रोकने की बात ही नहीं हो सकती, उलटा उसे बढ़ावा दिया जाता है।
यही व्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम पर तो यह आधुनिक राष्ट्र राज्य व्यवस्था खड़ी है। जहाँ स्वतंत्रता की कोई स्पष्ट परिभाषा तो नहीं है, लेकिन सबकुछ उसीके उपर खड़ा है।
स्वतंत्रता और freedom में कोई संबंध नहीं है। freedom मेरी मरजी की बात है, जबकि स्वतंत्रता में स्व के तंत्र के अनुसार जीने की बात आती है और यह तंत्र प्रकृति आधारित ही हो सकता है। एक बीज में से एक पौधा होता है, पौधा बड़ा होकर पेड़ बनता है, पेड़ में फूल होता है, उसमें से फल होता है, उसमें बीज होता है और वही बीज नवपल्लवन करता है, यही तंत्र मनुष्य जीवन का भी दर्शक है।

अस्तित्व में जो व्यवस्था निहित है, उसीके आधार से जीने की बात को स्वतंत्रता कहते हैं। यह व्यवस्था पशु पक्षियों में भी है, जीव जन्तुओं में भी है, वनस्पतियों में भी है और यही व्यवस्था मनुष्य जीवन का भी आधार होनी चाहिए।
आधुनिक राष्ट्र राज्य व्यवस्था को समाज नहीं सुहाता है, आज जिसे civil society कहा जाता है, उसे तो समाज नहीं कह सकते। समाज की अपनी एक सोच होती है, जीवन में एक ऐसी सहजता होती है, जिससे मन – वचन और कर्म में कोई खास अंतर न रहे, समाज की अपनी मान्यता होती है, अपनी आस्था होती है, अपना इतिहास होता है और स्वयं के भीतर बुने हुए आर्थिक सामाजिक ताने बाने होते हैं। किसी एक मुद्दे के लिए चंद घंटे या चंद दिनों के लिए इकठ्ठा हुए लोगों को समाज नहीं कहा जा सकता।
समाज स्वयं में स्वतंत्रता से जीने की क्षमता रखता है, समाज के पास अपना आर्थिक सामाजिक ढांचा होता है, अपनी आस्था व आध्यात्मिकता होती है और यही सब बाज़ारों के साथ सांठगांठ से चल रहे आधुनिक राजतंत्र के लिए अस्वीकार्य होता है, इसीलिए आधुनिक राजतंत्र व आधुनिक अर्थतंत्र के द्वारा समाज को विघटित करके अलग अलग व्यक्तियों में बांटने की चेष्टा की जाती है और ये चेष्टा भी आधुनिक freedom के नारे के साथ की जाती है, जिसका कोई विरोध करता ही नहीं, क्योंकि यह तो स्वतंत्रता की बात प्रतीत होती है, जबकि आधुनिक freedom की सोच की स्वतंत्रता की तुलना में गुलामी से अधिक निकटता है।
कुछ इस तरह से व्यक्तिस्वातंत्र्य (individual freedom) के नाम पर व्यक्तिवादिता (individualism) को स्थापित किया जाता है और व्यक्तिवादिता ही समाज की नींव में लगी बहुत बड़ी सेंध है। व्यक्तिवादिता ही बाजारवाद, उपभोक्तावाद, आधुनिक राष्ट्र राज्य व्यवस्था की जननी भी है।

आधुनिक राष्ट्र राज्य के सामने व्यक्ति कोई चुनौती बन ही नहीं सकता, क्योंकि यदि वह किसी कानून के विरोध में है, तो भी उसके पास या तो घूटने टेकने के अलावा या तो अदालत में जाने के अलावा या तो घूस देने के अलावा कोई मार्ग ही शेष नहीं रहता है। यदि वह घूटने नहीं टेकता और घूस देता है, तो उसके लिए भी अत्यधिक धन की आवश्यकता है, जिसे कमाने के लिए आधुनिक अर्थतंत्र को छोड़कर कोई विकल्प उसके पास शेष नहीं है, और यदि अदालतों में जाता है, तो भी अत्यधिक धन के बिना कुछ खास हो भी नहीं सकता और यह आधुनिक संविधान भी तो आधुनिक राष्ट्र राज्य व्यवस्था से संपूर्णत: पृथक है ही नहीं।

सुनिए पवन गुप्त जी की वाणी में Deconstructing Modernity शृंखला का अष्टम चरण: Entrapment in Material Realm।


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