(गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी के साथ की बातचीत के आधार पर)
‘धन के हस्तांतरण’ के विभिन्न प्रकारों वाली व्यवस्था:
जिस तरह हमारे समाज में ‘धन’ के ढेर सारे स्वरूप थे, उसी तरह हमारे समाज में धन के एक हाथ से दूसरे हाथ तक हस्तांतरण के भी बहुत सारे तरीके हुआ करते थे। आजकल तो समाज में धन के एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक हस्तांतरण का ‘व्यापार / लेन-देन / खरीदी-बिक्री’ ही सर्व-प्रचलित, सर्वप्रयुक्त और लगभग एक मात्र तरीका नज़र में आता है, परंतु कभी समाज में ‘व्यापार’ के अतिरिक्त भी धन के हस्तांतरण के ढेरों तरीके हुआ करते थे, जो कि कुछ और नहीं बल्कि ‘सहयोग की अर्थव्यवस्था’ और समाज में ‘आपसी सहयोग’ के तरीके ही थे।
इन अन्य तरीकों में ‘दान’ सबसे बड़ा तरीका था। हमारे समाज में ‘दान’ केवल एक ’धार्मिक’ या ‘सामाजिक’ कृत्य न होकर ‘अर्थव्यवस्था’ के उद्देश्य से बनाई गई व्यवस्था थी। देखकर बड़ा ही ताज्जुब लगता है कि आजकल हमारे अर्थशास्त्रों की पढ़ाइयों से ‘दान’ जैसे अर्थव्यवस्थागत शब्द एवं संकल्पनाएँ पूरी तरह नदारद हैं, जबकि यह हमारी सामाजिक अर्थव्यवस्था की बहुत ही मज़बूत संकल्पना रही है। यह ‘दान’ भी आजकल की तरह केवल ‘पैसों’ या ‘मुद्राओं’ में ही नहीं होता था, बल्कि यह धन के सभी आठों स्वरूपों में हुआ करता है। इसीलिए हमारे यहाँ ‘विद्या’ का भी दान होता है, ‘गौ’ का भी दान होता है। इसी तरह अन्य ‘पशुधन’ आदि का भी दान होता है।
‘दान’ में हम सामने वाले के खर्च की बचत करते हैं, जबकि ‘व्यापार’ में हम सामने वाले से खींचते हैं। यही कारण है कि हमारी बस्तियों, हमारे गांवों में कभी दुकानें नहीं लगने दी गई थीं। गाँव में कुम्हार, लोहार, सुनार, बढ़ई, बंशकार आदि जो भी, जो कुछ भी बनाते हैं, वह ही सीधे लोगों को घरों में पहुँचाकर देते हैं। समाज में इस विषय पर बहुत ही अधिक सोचा गया था, कि गाँव में किसी की भी दुकान अगर लगेगी तो वह बेचेगा ही। इसीलिए, उन्होंने इनकी दुकानें ही नहीं लगने दी थीं। यही कारण है कि हमारे व्यापारी वर्ग में से किसी ने भी भूमि पर एक जगह बैठकर व्यापार नहीं किया है। वह तो जैसा कि वर्णन आता है कि फलां व्यापारी पानी के जहाज से सात समंदर पार तक गया था, या फिर अपना सार्थवाह लेकर बाहर दूर देश निकल गया था। इस तरह, सारा का सारा वैश्य वर्ग या तो भूमि के द्वारा या फिर समुद्र मार्ग से बाहर का ही व्यापार करता था। गाँव के अंदर व्यापार करना हमारे यहाँ पूरी तरह से निषेध रहा है।
वैसे भी जहाँ ‘व्यय-प्रधान’ अर्थव्यवस्था होती है, वहाँ ‘देने’ का, ‘दान’ का महत्व बहुत ज्यादा हो जाता है, वहीं ‘आय-प्रधान’ अर्थव्यवस्था में ‘व्यापार’ महत्वशाली हो जाता है। ‘आय-प्रधान’ अर्थव्यवस्था में ‘सामाजिक-उद्यमिता’ जैसी ‘व्यापार’ की ही अन्य संकल्पनाएँ, अन्य स्वरूप महत्वशाली हो जाते हैं।
समाज में धन के हस्तांतरण की ‘दान’ ही केवल एक मात्र व्यवस्था नहीं थी। ‘दान’ के अतिरिक्त भी समाज में एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक धन के हस्तांतरण की ढेरों अन्य व्यवस्थाएँ थीं। समाज में प्रचलित ‘दान’, ‘दक्षिणा’, ‘भिक्षा’, ‘तेगम (हिस्सा)’, ‘मान’, ‘मर्यादा’, ‘नोम’, ‘न्यौछावर’, ‘शगुन’ आदि सब इस तरह के धन के हस्तांतरण की अलग-अलग व्यवस्थाएँ हुआ करती हैं। धन के एक हाथ से दूसरे हाथ तक जाने वाले इन सभी तरीकों की अलग-अलग परिभाषाएँ और विस्तृत विधान हुआ करते थे।
- दान – दान समाज में विद्वानों-पंडितों जैसे कवि, साहित्यकार, दार्शनिक, कलाकार, पहलवान, शास्त्री आदि अपने अपने विषय के विद्वानों, उन विषयों के पंडितों आदि को ही दिया जाता रहा है।
- दक्षिणा – दक्षिणा हमेशा गुरु एवं गुरु-तुल्य लोगों को ही दी जाती रही है। यह गुरु की इच्छा के अनुरूप ही दी जाती रही है।
- भिक्षा – हमारे समाज में साधु, सन्यासी, ब्रह्मचारी, भिक्षावृत्ति वाले आदि विभिन्न तरह से ‘दीक्षित’ (दीक्षा में बद्ध) लोग ही ‘भिक्षा’ के अधिकारी रहे हैं। इन विधानों में थोड़ी सी गड़बड़ी से ही समाज में कितनी उथल-पुथल मच सकती है, वह हम देख ही रहे हैं। ‘भिक्षा’ के पात्र साधु, सन्यासियों, ब्रह्मचारियों आदि को भिक्षा के बदले ‘दान’ मिलने से इनके स्वरूप में आए अंतर से हम सभी भलीभाँति परिचित हैं।
- हिस्सा – भिक्षावृत्ति वाली कुछ जातियों, जैसे जातिपुराण वाचक जाति आदि को अपने यजमानों की कमाई का एक हिस्सा दिया जाता रहा है। तेलंगाना क्षेत्र में इसके लिए एक अलग शब्द ’तेगम’ का उपयोग किया जाता है। यह उन भिक्षावृत्ति वाली जातियों का बकायदा एक हिस्सा ही रहता था, जिसे वे साल-दो साल में जब कभी एकाध बार जाकर लेते रहते थे।
- मान – समाज में सभी वर्ग के लोगों का ‘मान’ किया जाता रहा है। ‘दान’ के अलावा ‘मान’ के माध्यम से भी हमारे समाज में धन के बहुत बड़े हिस्से का हस्तांतरण होता था। विभिन्न संस्कारों आदि में कारीगरों की चीजें इस्तेमाल करते वक्त उन चीजों की कोई निर्धारित कीमत नहीं होने के कारण उसके बदले में दिए जाने वाला धन एवं आदर, उन कारीगरों के ‘मान’ का ही एक तरीका था। इन अवसरों पर कारीगरों को बकायदा एक पीठे पर बैठाकर, उनका तिलक आदि करके उनको जो कुछ भी चीजें देनी होती थी, वह देकर उनका ‘मान’ किया जाता था।
- मर्यादा – जिस तरह समाज में अलग-अलग वर्ग के लोगों का ‘मान’ किया जाता था, उसी तरह, एक परिवार में लोगों की ‘मर्यादा’ की जाती थी। यह परिवार में लोगों की मर्यादा ही थी, कि परिवार में विभिन्न लोगों जैसे, बुआ, मामा, फूफा, बहन, भाभी, भाई आदि सभी के परिवारिक संस्कारों एवं सामाजिक कार्यक्रमों में निर्धारित भूमिकाएँ एवं अधिकार थे। जैसे, विवाह के दौरान नव-विवाहिता को पहली बार बिछिया पहनाने की मर्यादा भाभी द्वारा निभाई जाती है। इस तरह की भूमिकाएँ निभाने के बाद बकायदा उनका मान किया जाता है, जिसमें उनको धन, वस्त्र, गहने आदि चीजें अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार दी जाती रही हैं।
- नोम – कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशेष पद्धतियों द्वारा एक-दूसरे को देने वाला कार्यक्रम नोम कहलाता है। मकर संक्रांति के अवसर पर 13-13, 14-14 चीजें दान करने का विधान है। कुछ इलाकों में कार्तिक माह में माह के हर दिन अलग-अलग चीजों से तुलसी की 108 परिक्रमा करके उनको दान करने की परम्परा है। कुछ और इलाको में ‘सौ-सेरा’ आदि के नाम से अलग-अलग चीजों से 100 सेर (किलो) दान करने की प्रथा है। तेलंगाना के इलाके में नव-विवाहिता के घर आने पर कुम्हार के आवा, तेली के घाने, बर्तन की दुकानों आदि के पूरी तरह लुटवाने का विधान है। लुटवाने के बाद उसकी पूरी कीमत कुम्हार, तेली या कसेरे को दे दी जाती है।
- न्यौछावर – विभिन्न पारिवारिक, सामाजिक अवसरों पर समाज में बिना टेक्नोलॉजी पर आधारित कई अन्य जाति के लोगों को जैसे धोबी, नाई, मछुआरा, वाद्ययंत्रों वाली वादक जाति आदि को ‘न्यौछावर’ के रूप में बहुत सारा धन और उसके अलावा भी बहुत कुछ दिया जाता रहा है।
- शगुन – विभिन्न शुभ अवसरों पर उपहार स्वरूप कुछ दिया जाने वाला कार्यक्रम शगुन करना कहलाता है।
‘दान’ की विभिन्न पद्धतियों का उद्देश्य, लोगों के अंदर ‘छोड़ने वाला’ मानस तैयार करना ही रहा है। व्यक्ति के मानस में समृद्धि एवं समाज को समृद्ध बनाने में ‘दान’ एवं ‘देते रहने’ के इन तरीकों की समाज में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका थी।
(क्रमश:)
Leave a Reply