‘सहयोग’ आधारित ग्राम की समृद्धि-व्यवस्था (भाग 3/3)

ऋण का भाव’ पैदा करने वाली व्यवस्था:

समाज में हर तरह के काम के लिए ‘सहयोग की अर्थव्यवस्था’ ही व्याप्त रही है, जिसके माध्यम से समाज में एक तरह के ‘मानस निर्माण’ जैसे बहुत से उद्देश्य स्वतः ही सधते रहे हैं। पूरी व्यवस्था में एक-दूसरे के प्रति बनाई गई ‘परस्पर निर्भरता’ और ‘आपसी सहयोग’ का एक और अत्यंत महत्वपूर्ण उद्देश्य हमारे अंदर ‘ऋण के भाव’ को पैदा करना भी रहा है। हम बिना किसी दूसरे व्यक्ति – कारीगरों, गुरु, जाति-बंधु आदि – की मदद के, बहुत से काम स्वयं अपने आप नहीं कर सकते हैं। हर किसी चीज के लिए एक विशेष व्यक्ति, एक विशेष जाति की भूमिका निश्चित की गई है। इसीलिए अलग-अलग संस्कारों में, अलग-अलग अवसरों पर बिना नाई के, बिना धोबन के, बिना वैश्या के, बिना फूफा के, बिना मामा के, बिना पुरोहित के, हम बहुत से काम कर ही नहीं सकते हैं। वह विशेष काम उन विशेष व्यक्तियों की अनुपस्थिति में हो ही नहीं सकता है। समाज में सभी लोगों की एक निश्चित भूमिका निर्धारित करने के अन्य उद्देश्यों के साथ-साथ, एक प्रमुख उद्देश्य हमारे अंदर उनके प्रति ‘ऋण के भाव’ को पैदा करना भी रहा है। एक दूसरे के प्रति बनाई गई परस्पर निर्भरता का यह एक महत्वपूर्ण उद्देश्य रहा है।

पूरे समाज में ‘धन की अर्थव्यवस्था’ के बजाय ‘सहयोग की अर्थव्यवस्था’ होने के कारण हर व्यक्ति जरूरत के समय अपना सहयोग लेकर खड़ा रहता था। चाहे वह खेती से संबंधित कोई काम हो, घर के निर्माण का काम हो, या फिर 49 संस्कारों में से किसी संस्कार का काम हो; हर व्यक्ति, हर परिवार अन्य परिवारों के ऊपर आधारित रहता ही था। इसके बदले में वह स्वयं भी उस परिवार की जरुरत के समय उसके साथ अपना सहयोग लेकर खड़ा रहता था। इसी तरह, तीर्थाटन आदि से लेकर अन्य सारे कामों में व्यक्ति अपने समाज, अपनी जाति के अन्य लोगों के ऊपर आधारित/निर्भर होकर ही इतनी लंबी-लंबी यात्राएँ कर लेता था। क्योंकि किसी भी तरह की यात्रा में व्यक्ति अपना खाने-पीने का सारा सामान लेकर तो चलता नहीं था। इसके अलावा, पूरे भारत में अन्न बेचना एक पाप होने की वजह से न तो अन्न ही बिकता था और न भोजन ही। तब इतने सारे तीर्थ यात्रियों का सारा भोजन-पानी समाज के लोगों के द्वारा ही व्यवस्थित होता था। वर्तमान समय में ‘धन की अर्थव्यवस्था’ की वजह से खुल जाने वाली होटल, भोजनालय एवं व्यापार आधारित अन्य सारी व्यवस्थाएँ हमारे अंदर से ‘ऋण के भाव’ को पूरी तरह से नष्ट करती जा रही हैं। आज हम पैसों के दम पर कहीं भी, कुछ भी काम करवा पाने का दम भरते हैं, जो कि पहले के समय में संभव ही नहीं था। हम बिना किसी दूसरे की मदद के कुछ भी नहीं कर सकते थे, जिसके कारण हम हमेशा अपने आपको दूसरे ढेर सारे लोगों का ‘ऋणी’ समझते थे। आज ऐसा नहीं है। ‘सहयोग’ के स्थान पर ‘धन’ की अर्थव्यवस्था के आते ही हमारे अंदर से ‘ऋण’ का यह भाव पूरी तरह से नष्ट होते जा रहा है। ‘पैसा फैंक, तमाशा देख’ की तर्ज पर सारा कुछ पैसों पर ही आधारित हो गया है। नहीं तो, कभी हमारे विवाह समारोह, हमारे अपने घरों में ही अपने रिश्तेदारों की मदद से 10-10, 15-15 दिनों तक आसानी से चला करते थे। सहयोग के गायब हो जाने से एक दिन में ही समाप्त हो जाने वाले आजकल के विवाह भी लोगों पर कितने भारी पड़ रहे हैं, यह सब हम जानते ही हैं।

इस तरह से देखते हैं, तो कई सारे संदर्भों में ‘सहयोग की अर्थव्यवस्था’, वर्तमान में प्रचलित ‘धन’ एवं ‘व्यापार की अर्थव्यवस्था’ के एकदम विपरीत दिशा में बहती नज़र आती है:

  • आय-प्रधान व्यवस्था से व्यय-प्रधान व्यवस्था की ओर
  • खरीदी-बिक्री और व्यापार वाली व्यवस्था से आपसी-विश्वास वाली व्यवस्था की ओर
  • संपन्नता से समृद्धि की ओर
  • लोभ वाली व्यवस्था से विभिन्न तरह के लाभ (शुभ-लाभ, संबंध-लाभ, पुण्य-लाभ आदि) वाली व्यवस्था की ओर
  • व्यक्तिगत जीवनशैली से सामाजिक जीवनशैली की ओर
  • व्यक्तिगत कमाई से पारिवारिक कमाई वाली व्यवस्था की ओर
  • मज़दूरों वाली व्यवस्था से मालिकों (बिना मज़दूरों) वाली व्यवस्था की ओर
  • एकत्रित करके रखने वाली प्रवृत्ति से अधिकता और पूर्णता वाली स्थिति की ओर
  • ‘अहं भाव’ पैदा करने वाली व्यवस्था से ‘ऋण’ का भाव पैदा करने वाली व्यवस्था की ओर

उपसंहार

आज से कुछ-एक दशकों पहले तक लगभग पूरे भारतवर्ष में यही सहयोग आधारित समृद्धि कारक व्यवस्था रही है, जो एक एक साथ बहुत सारे सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक लक्ष्यों को साधती चलती रही है। बहुत से ग्रामीण इलाकों में जहाँ तथाकथित आधुनिकता एवं विकास का उतना ज्यादा हमला नहीं हुआ है, इनमें से बहुत कुछ अभी भी यदा-कदा देखने को मिल जाता है। जबलपुर शहर के नज़दीक स्थित इन्द्राना ग्राम, जहाँ मैं रहता हूँ, उसमें और उसके आसपास के कई गाँवों में यह पूरी की पूरी व्यवस्था अवशेष रूप में (बुजुर्गों के स्वयं के अनुभवों के रूप में) अभी भी देखने को मिल जाती है। इनमें से कुछ पद्धतियों का तो बाकायदा अभी तक पालन हो रहा है। परन्तु, उनमें इस दृष्टि का अभाव है।

आज भी समय है, यदि एक बार फिर इस भारतीय दृष्टि से अपनी व्यवस्थाओं का अवलोकन करके उसके सिद्धान्तों को लागू करते हैं, तो न केवल सकल राष्ट्र को, वरन सम्पूर्ण विश्व को समृद्धि की ओर ले चलने में सफल होंगे।

(समाप्त)


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