गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी के अनुसार भारतीयता और आधुनिकता के अंतर को समझने का एक आसान सा तरीका भारतीय टेक्नोलॉजी और आधुनिक टेक्नोलॉजी के अंतर को समझ लेना भी है। बहुत सारी अन्य चीजों को समझने के साथ-साथ, गुरुजी आधुनिकता को समझने के लिए आज की टेक्नोलॉजी और उसके परिणामों को बहुत ही विस्तार से समझने की सिफारिश करते हैं।
उनके हिसाब से किसी भी काल की सभ्यता में उस काल की टेक्नोलॉजी का बहुत ही ज्यादा महत्त्व होता है। जहाँ एक ओर भारतीय सभ्यता में छोटी टेक्नोलॉजी का ही महत्त्व रहा है, वहीं आधुनिक सभ्यता में बड़ी टेक्नोलॉजी ही महत्त्वशाली रही है।
गुरुजी कहते हैं कि हमारे लोग चाहते तो हमारा समाज भी बड़ी – बड़ी टेक्नोलॉजी बना सकता था, मगर उन्होंने बनाई नहीं। भारतीय सभ्यता बहुत छोटे – छोटे कारखानों की सभ्यता रही है। इसमें लोहार, सुनार, कुम्हारों, जुलाहों वाली टेक्नीकें और टेक्नोलॉजी ही महत्त्वशाली थी। जबकि आज की आधुनिक सभ्यता बड़े-बड़े कारखानों और बड़ी-बड़ी टेक्नोलॉजी की सभ्यता है।
उनकी दृष्टि से आधुनिक सभ्यता, बड़ी टेक्नोलॉजी वाली सभ्यता का पर्याय ही है। जबकि छोटी टेक्नीक, छोटी टेक्नोलॉजी भारतीय सभ्यता के पर्याय मानी जा सकती है। टेक्नोलॉजी के बदलते ही हमारा अर्थशास्त्र, हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारी जीवनशैली, लोगों के आपसी संबंध और उन सबसे महत्त्वपूर्ण, हमारे जीवन मूल्यों में बहुत बदलाव आ जाते हैं। आधुनिकता को समझने के लिए छोटी टेक्नोलॉजी और बड़ी टेक्नोलॉजी के अंतर का ठीक से समझ लेना बहुत आवश्यक हो जाता है। दोनों के बीच के कुछ अंतर इस प्रकार हैं:
टेक्नीक जब छोटी होती है, कारखाने जब छोटे होते हैं, तो समाज उसको व्यवस्थित करता है। दूसरी ओर बड़ी टेक्नोलॉजी, बड़े कारखाने समाज को व्यवस्थित करते हैं। गुरुजी कहते हैं, कि आज का सारा समाज तो कारखाने वाली सभ्यता में जी रहा है। कारखाने में जो चीजें तैयार होती हैं, उनको इस्तेमाल करने के लिए जिस तरह की जीवनशैली की जरूरत है, ये लोग समाज में उस तरह की एक जीवनशैली बनाते जा रहे हैं। हमको क्या पहनना है, क्या खाना है, कैसा घर चाहिए, कैसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए; ये सारा कुछ कारखाने वाले ही तय कर रहे हैं। वो अपने हिसाब की सभ्यता, अपने हिसाब का एक समाज बना रहे हैं।
जबकि उसके उल्टे, छोटी टेक्नोलॉजी को समाज व्यवस्थित करता है। हमको अपने गाँव में क्या – क्या चीज चाहिए, क्या – क्या विद्याएँ चाहिए, क्या – क्या टेक्नोलॉजी चाहिए, ये सारा कुछ समाज निर्धारित करता है। एक समय में गाँव में बहुत तरह की विद्याएँ थीं। हमारे पास में, एक गाँव का ही मतलब होता है, कम से कम 360 जातियाँ। जहाँ 360 जाति के लोग रहते हैं, वो एक आदर्श गाँव कहलाता है और जाति का मतलब हमारे यहाँ हमेशा एक ‘टेक्नीक’ ही रहा है।
‘कुम्हार’ का नाम लेते ही ‘कोई भी’ आदमी तो दिखाई नहीं देता है। ‘चाक’ की टेक्नीक पर काम करता एक व्यक्ति दिखाई देता है। इसी तरह ‘लोहार’ का नाम लेते ही ‘कोई भी’ आदमी तो नहीं दिखाई देता है, बल्कि ‘लोहे को गलाने’ की टेक्नीक जानने वाला एक आदमी दिखाई देता है। जाति का मतलब एक टेक्नीक, एक विद्या, एक विज्ञान ही रहा है।
टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है, उस समय हर गाँव के मुखिया और बाकी बड़े लोगों का हमेशा ये प्रयास रहता है, कि उनके गाँव में अधिक से अधिक जाति वाले यानि अधिक से अधिक टेक्नीक वाले लोग आकर रहे। तब, समाज ही इन सारी टेक्नोलॉजी को अपने-अपने गांवों में व्यवस्थित करके रखता है। टेक्नोलॉजी के बड़े हो जाने मात्र से ये गांवों की क्षमता से बाहर की चीज हो जाते हैं, और उल्टे, समाज को ही व्यवस्थित करने लगते हैं।
छोटी टेक्नोलोजी का उत्पादन शून्य पर होता है, और बड़ा कारखाना जरूरत से अधिक उत्पादन करके परेशानी में रहता है। यहाँ ‘शून्य पर उत्पादन’ का मतलब है, सामान लेने (खरीदने) वाले के कहने के बाद ही (ऑर्डर मिलने के बाद ही) उस वस्तु का उत्पादन करना। अर्थात् तैयार माल का शून्य स्टॉक। टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है, तो यह बड़ी आसानी से होता है। हमारे लोहार, बढ़ई, सुनार आदि कोई भी पहले से बहुत सारी चीजों को तैयार करके कभी नहीं रखते थे। सामान बनवाने वाले के कहने के बाद ही वो काम चालू करते, और उस चीज को बनाकर के तुरंत उसके घर पहुंचा देते थे।
किसी तीज – त्योहार में बनने वाली चीजों, जैसे गणेश चतुर्थी के समय में गणेश, पोला के समय बैल आदि में भी बनाए जाने वाली चीजों की संख्या पहले से ही निश्चित रहती थी, क्योंकि सबके घर बंधे होते थे। ये सारी चीजें अपने-अपने बंधे हुए घरों में ही पहुंचाने की होती थीं। इसी तरह हर घरों में अलग-अलग समय पर पहुंचाने वाली चीजें पहले से ही निश्चित होती थी। जैसे बढ़ई द्वारा साल के अलग-अलग समय पर उसके बंधे घरों में बेलन, मथानी, दाल घोंटनी, चक्की का डंडा, बच्चों के अलग-अलग समय पर खेलने के खिलौने (लट्टू, लकड़ी के बैल, तलवार, तीन पहियों की गाड़ी आदि) आदि पहुंचाना ही होता था। इसी तरह अन्य कारीगरों के सभी सामान निश्चित होते थे।
इन सब कारणों से कारीगरों को, छोटी टेक्नोलॉजी वाले कारखानों को सामान बनाकर, स्टॉक रखकर, फिर उसको बेचने का काम कभी भी नहीं करना पड़ता था। इसीलिए, इस टेक्नोलॉजी में मार्केटिंग जैसा कोई खर्च कभी नहीं होता था। बड़े कारखानों में हमेशा इसका उल्टा होता है। ये कारखाने अपनी उत्पादन क्षमता के हिसाब से बहुत सारा और अधिकतर जरूरत से ज्यादा उत्पादन करके, तैयार माल को बेचने में ही परेशान रहते हैं। ‘विज्ञापन’, ‘मार्केटिंग’, ‘छूट’, ‘उत्पाद के साथ कुछ मुफ्त’ आदि शब्द और संकल्पनाएँ इन्हीं बड़े कारखानों की देन हैं। आजकल बाज़ार में ‘मांग’ और ‘उपलब्धता’ का गड़बड़ाता अर्थशास्त्र भी बड़ी टेक्नोलॉजी वाले अर्थशास्त्र की ही देन है, जहाँ ‘माँग’ से बहुत ज्यादा का उत्पादन करके उसको जबरदस्ती बाजा़र में बेचा जाता है।
छोटी टेक्नोलोजी में समाज रंगीन होता है और विविधता से जीता है, जबकि बड़े कारखानों की व्यवस्था में समाज समान हो जाता है। भारत के विविधतापूर्ण समाज के पीछे भारत की भौगौलिक परिस्थियों का नहीं, बल्कि यहाँ की टेक्नोलॉजी का महत्त्व रहा है। जबकि हमको हमेशा से यह पढ़ाया गया है, कि भारत की विशाल और विविधता से भरी भौगोलिक परिस्थितियाँ ही हमारी इस सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता का कारण रहे हैं। टेक्नोलॉजी जब छोटी होती है, तो कारीगर अपने क्षेत्र विशेष की परिस्थियों, वहाँ मिलने वाले कच्चे माल, वहाँ की जलवायु और वहाँ की जरूरत के हिसाब के डिजाइनों की चीजें बनाता है।
यही कारण है कि भारत वर्ष में अलग – अलग जगहों पर, अलग – अलग तरह के मकान, ढेरों तरह की अन्य इमारतें, ढेरों तरह के कपडों के डिज़ाइन, ढेरों तरह के भोजन, ढेरों तरह के बर्तनों के डिजा़इन आदि मिलते रहे हैं। छोटी टेक्नोलॉजी की जगह बड़ी टेक्नोलॉजी के आते ही आज कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सब कुछ एक जैसा ही लगता है। सभी जगहों पर एक ही तरह के सीमेन्ट से बने फ्लैट छतों वाले, 1/2/3 बेडरूम वाले घर/फ्लैट/ड्यूपलेक्स, एक ही तरह के, और एक ही तरह से पहने जाने वाले पैंट – शर्ट, साड़ी और सलवार सूट, एक ही तरह के खाने, एक ही तरह के बर्तन, एक ही तरह के वाहन, एक ही तरह की दुकानें, सब कुछ एकदम एक जैसा, एक समान होता जा रहा है।
वहीं छोटी टेक्नोलॉजी में, हर क्षेत्र के अलग मकान, अलग पहनावा (साड़ी और धोती एकदम एक ही तरह के होते हुए भी उनके पहनने के तरीकों में बहुत ही अंतर हुआ करता था), अलग बर्तन – भांडे, अलग खान – पान, सब कुछ एकदम अलग हुआ करता था। भाषा, भेष, भोजन, भवन, भूषण आदि के आधार पर, पूरे भारत वर्ष में, सभी चीजों के कम से कम 108 डिजा़इन तो मिलते ही हैं। बड़ी टेक्नोलॉजी के आ जाने से आज कपड़े किसी व्यक्ति विशेष के लिए न बन कर, एक विशेष नाप के बनते हैं। आज 40 नंबर की वही शर्ट आपको अदिलाबाद, मसूरी, जबलपुर, केरल आदि सभी जगह मिल जाती है, और यही हाल अन्य सभी चीजों का है। पूरे देश में भौगोलिक परिस्थियों में वही की वही विविधता रहने के बावजूद, समाज की विविधता और रंगीनीयत के बदले, भारत में पूरी तरह से एकरूपता आती जा रही है और यह बड़ी टेक्नोलॉजी की ही देन है।
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