हमारी स्वयं की समझ?

1750 में अंग्रेज़ और पश्चिम के अन्य आर्थिक इतिहासकारों के अनुसार भारतवर्ष दुनिया के कुल गैर कृषि उत्पाद का 24.5 से लेकर 33% उत्पादन करता था। यह लगभग निर्विवाद है। बहस 24.5 और 33 के बीच की है। Huntington की बहुचर्चित पुस्तक A Clash of Civilisation मैं 33% वाला आंकड़ा है। माने 1750 तक भी भारत एक समृद्ध देश था।

अब दूसरी बात यह उत्पादन कोई राजा महाराजा, कोई सेठ साहूकार अपने मातहत या अपने कारखानों में नहीं करवाते थे। अम्बानी या टाटा उस समय नहीं थे। तो यह लोहे, तांबे, चमड़ा, मसालों, और विशेषकर सूती और रेशमी भी, कपड़ों का इतना बड़ा उत्पादन कौन करता था? ये हमारी कारीगर जातियां करती थी। इसमे किसी को शक नहीं होना चाहिए।
ये उत्पादन इन कारीगर जाति के लोग अपने अपने घर बैठ कर करते थे। उनका कारखाना उनके घर पर ही होता था। घर के लोग, औरत, मर्द, बच्चे सभी उसमे अपनी अपनी भूमिका निभाते थे। वे अपनी मर्ज़ी और अपनी रफ्तार से उत्पादन करते थे। उन पर कोई बंदिश, ज़ोर ज़बरदस्ती का सवाल नहीं था।
अब जरा सोचा जाय कि यह कारीगर जातियाँ कौन सी थीं। जिन्हें आज हम पिछड़ी, backward , scheduled caste दलित जातियाँ कहते हैं, वे ये कारीगर जातियाँ थी और आज भी अगर हुनर और कारीगरी बची है तो इन्ही जातियों के पास मिलेगी।
अब जरा सोचा जाय अपनी सामान्य बुद्धि से की जिन जातियों की वजह से इस देश मे इतना बड़ा उत्पादन हो रहा हो और वे उत्पादनकर्ता स्वतंत्र रूप से मालिकाना अंदाज़ में उत्पादन करते हों, उनकी हालत क्या उतनी दयनीय हो सकती है जैसा आज हमें दिखाया जाता है और हमने उसे मान भी लिया लगता है।
इस सुंदर, समृद्ध व्यवस्था को कैसे नष्ट किया गया उसके लिए एक पुस्तक का नाम देना चाहूंगा। अंग्रेज़ ने लिखी है करीब 1940/35 के आस पास। The white sahib in India by Reginald Reynold. गांधी जी ने इन्हें अंगद का नाम दिया था। किताबें तो और भी हैं पर अंग्रेज़ की बात पर लोगों को ज़्यादा यकीन होता हो शायद इसलिए।
एक और बात। 1857 में सिर्फ लक्ष्मी बाई ही घोड़े पर सवार हो कर नहीं लड़ी। उमा देवी, उदा देवी, झलकारी बाई इत्यादि दसियों नाम है जिनको कुछेक लोग ही जानते हैं और अंग्रेज़ इतिहासकारों ने अपने हिसाब से इतिहास लिखा। इन बहादुर महिलाओं का कोई जिक्र ही नहीं। और हमारे रोमिला जी, इरफान साहेब जैसों ने उसी अंग्रेज़ी नज़रिये से लगभग, चीज़ों को देखा तो हमें भी यह सब मालूम नहीं। हालांकि इन महिलाओं की कुछ मूर्तियाँ आज भी आपको लखनऊ और राय बरेली जैसी जगहों पर चौरस्तों पर मिल जाएगी पर चूंकि ये घोड़े पर सवार, हाथ में ढाल तलवार लिए होती हैं इसलिए लोग उन्हें झांसी की रानी ही समझ लेते हैं। पास जा कर नाम कौन पढ़ता है।
मजे की बात यह है कि ये बहादुर महिलाएं तथाकथित पिछड़ी और दलित जातियों से हैं। इसे संज्ञान में अच्छी तरह लेना चाहिए। और यह भी ज़रा सोचिये कि क्या कोई घोड़े पर बैठना, उसे दौड़ा कर ढाल तलवार के साथ युद्ध करना एक – दो दिन में सीख सकता है? खेल नहीं है। इसके लिए बरसों की मेहनत चाहिए ,अभ्यास चाहिए। यह बिना जातिगत परंपरा के सम्भव ही नहीं है। इसका अर्थ हुआ कि इस प्रकार की परंपराएं इन तथाकथित पिछड़ी और दलित जातियों में रहीं होंगी।
तो सवाल उठना चाहिए कि जो तस्वीर भारत के बारे में, हमारी इन परिश्रमी और बहादुर जातियों के बारे में गढ़ी गई है, हमें दिखाई गई है और हमने मान ली है, वह कहां तक सच है।
जिन लोगों के, जातियों के उद्यम से भारत समृद्ध था, जिन जातियों में उत्पादन का सामर्थ्य था, जिनकी लड़कियां घोड़े पर बैठ कर सेना का नेतृत्व करती थीं, उन जातियों की क्या वैसी हालत हो सकती है जैसी हमें दिखाई जाती रही है और हमने मान ली है। कम से कम उस तस्वीर पर प्रश्न तो खड़े होने चाहिए।
पवन कुमार गुप्त

दिसंबर 25, 2019

pawansidh.blogspot.in


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