यह लेख सन 2016 में लिखा गया था।
हर बार की तरह इस बार भी बनारस आकर मन प्रफुल्लित हो गया। पता नहीं, अब तो मैंने विश्लेषण करना भी छोड़ दिया है, कि ऐसा क्या है यहाँ, यहाँ के लोगों में, हवा में, बोली में, यहाँ की बेपरवाही में, बेतरतीबी में, यहाँ की गंगा में, यों कहें यहाँ के वातावरण में, कि सहज ही मन प्रसन्न हो उठता है।
न्यौता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थित आई आई टी से आया था। आई आई टी में नए छात्र आए हैं। बेचारे कई साल कोचिंग करके, अपने बचपने और तरुणाई को दबा कर, भुला कर, कड़ी – एक तरफा और एक तरह की संकुचित मेहनत करके – अपने माँ-बाप के ‘सपनों’ को पूरा करने के लिए सिर्फ एक लक्ष्य (यहाँ प्रवेश पा सकें) लेकर चले और कई प्रकार के घावों को लेकर यहाँ पहुंचे हैं। हर साल आते ही उन्हे, एकबार फिर से पढ़ाई में झोंक दिया जाता था। पर इस साल एक नया प्रयोग हो रहा है। 21 दिनों तक कोई औपचारिक पढ़ाई / कक्षाएं नहीं होंगी। उन्हें इस परिसर से, यहाँ के शिक्षकों से, वातावरण से उनकी मैत्री कराई जाएगी, संबंध बैठाया जाएगा। उन्हें सहज बनाने का यह एक अच्छा प्रयास मुझे लगा। मैं भी इस प्रक्रिया और प्रयोग का एक हिस्सा बना। प्रोफेसर राजीव संगल जो यहाँ के निदेशक हैं सहजता और विद्वता का अनूठा मिश्रण – पुराने मित्र भी हैं – उन्हीं के निमंत्रण पर यहाँ आना हुआ। वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें देख कर इसका अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत का विद्वान कैसा होता होगा – बाहर से अति साधारण और अंदर से गहरी विद्वता का धनी – उसका दिखावा नहीं।
अन्य आई आई टी (कानपुर, दिल्ली इत्यादि) और यहाँ काशी के इस परिसर में ज़मीन आसमान का फर्क है। इतना हरा भरा – पुराने पीपल, बरगद, नीम, जामुन, आम और पता नहीं कितनी प्रजाति के 100 वर्ष पुराने आलीशान पेड़ों से भरा हुआ। इस परिसर की हर सड़क की अलग ही छटा है – कहीं आम के वृक्षों से लदा हुआ तो कहीं पीपल, कहीं जामुन, कहीं नीम और सड़कें बीस फुट से कम ही क्यों न हों उनके दोनों ओर दुगनी- तिगनी जगह छोड़ी हुई जहां घास लगा है (शायद लगाया नहीं गया है और यह उसकी खूबसूरती को बढ़ाता है।
मुझे तो लगता है यहाँ के botany विभाग या कृषि विभाग को इतने सारे पेड़ों और वनस्पतियों की एक inventory और एक कोश बनाना चाहिए। शायद बना भी हो। मुझे पता नहीं। पर इस पर हर वर्ष एक प्रोजेक्ट विद्यार्थियों को दिया जा सकता है। किस प्रजाति पर कब पत्ते आते हैं, फल आते हैं, फूल आते हैं, कब वे झड़ने लगते हैं। अलग अलग मौसम में वे कैसे दिखते हैं, कैसे वो मौसमानुसार अपना श्रुंगार बदलते हैं, तरह तरह के गहने और परिधानों से सजे ये पेड़ – उनकी तस्वीर हम ले कर एक प्रोजेक्ट का हिस्सा बना सकते हैं। कब किस मौसम में किस प्रजाति के पेड़ पर कौन सी चिड़िया अपना घौंसला बनाती है, उस घौंसले की खूबसूरती हमारे विद्यार्थी कैमरे में पकड़ सकते हैं – थोड़ी बहुत ही सही।
अलग अलग पेड़ से मनुष्य का रिश्ता, पशु-पक्षी का रिश्ता इस प्रोजेक्ट के जरिये समझा जा सकता है। स्थानीय (अनपढ़ या ज़्यादा पढे लिखे नहीं) लोग इन प्रजातियों के बारे में क्या समझ रखते हैं, उनसे समझा जा सकता है, जिसे लोक ज्ञान या लोक विद्या भी कह सकते हैं, पर हमने तो किताबों और टीवी के अलावा देखना ही छोड़ दिया है। इसलिए हममें से कुछ लोगों को हमारे विद्यार्थियों को ये सब दिखाना पड़ेगा।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक गज़ब की बात है। यहाँ प्रकृति और उसके पेड़, मानव द्वारा निर्मित भवनों से बड़े हैं। एक नए गेस्ट हाउस को छोड़ मुझे एक भी मकान नहीं मिला जो दो मंज़िल से ज़्यादा ऊँचा हो। सामान्य पेड़ की ऊँचाई कम से कम 35-45 फुट तो होती ही है। दो मंज़िला मकान अधिक से अधिक तीस फुट – यानि पेड़ बड़े और भवन छोटे। ऐसा नज़ारा अब कहाँ देखने को मिलता है। यहाँ है। अन्य आई आई टी में भवन बड़े, प्रकृति और पेड़ छोटे और आदमी और भी छोटा हो जाता है। यही आधुनिक शासन की बनावट है – आदमी छोटा रहे, तंत्र बड़ा।
यहाँ शायद महामना मालवीय जी एवं अन्य बड़े लोगों की वजह से जिन लोगों ने इसकी कल्पना की, आदमी और प्रकृति का रुतबा बड़ा है। कोई भी भवन विशालकाय नहीं है। वैसे भी आदमी और प्रकृति का सहज रिश्ता है जो सीमेंट से बने मकान और आदमी के बीच नहीं हो सकता, इसलिए प्रकृति का रुतबा बड़ा ही रखना चाहिए, उसके बाद मनुष्य और फिर मकान। इसका ध्यान अपने वास्तु शास्त्रियों को अब नहीं रह गया जब से वास्तु कला architecture में बदली।
वैसे भी यह 2016 काशी हिन्दी विश्वविद्यालय का शताब्दी वर्ष है। मेरा सौभाग्य है कि इस वर्ष यहाँ जाने का मौका मिला। मुझे इस पर शंका है कि यहाँ के विद्यार्थियों और शिक्षक गणों मे से भी अधिकांश को अपनी धरोहर का ज्ञान है या नहीं। इसकी कल्पना क्या थी, कैसे इसकी ज़मीन काशी राजा से महामना ने ली, उसके पीछे की कहानी, यहाँ के ग्राम वासियों को अलग से ज़मीन दे कर उस पर बसाना, ग्राम देवताओं के स्थानों को ज्यों का त्यों रहने देना, जहां आज भी गाँव के लोग समय समय पर आके गाते- बजाते हैं, उत्सव मनाते हैं, यहाँ का सुंदर मंदिर जहां बच्चे पढ़ने से लेकर ‘जब मन खराब होता है’ जाते हैं।
सबसे बढ़ कर 1916 फरवरी में महात्मा गांधी का भाषण जो इस विश्वविद्यालय के उदघाटन समारोह के उपलक्ष्य में उन्होंने भारत के उस समय के सबसे बड़े अफसर, वाइसराय लॉर्ड हार्डिंज की उपस्थिती में दिया था। भाषण हिन्दी में दिया और हार्डिंज को बड़े प्यार से, पर ताल ठोक कर चुनौती दी थी। उससे एक संदेश पूरे देश में गया कि एक हमारे जैसा ही साधारण काला इंसान है हमारे बीच, जो अंग्रेजों के सबसे बड़े अफसर को इस तरह की बात बोल सकता है।
उसी समय उनके इस साहस का डंका देश भर में बज गया होगा कि यह काम तो कोई योगी या महात्मा ही कर सकता है। यह बड़ा काम इस परिसर में हुआ, यहाँ के पेड़ और पुरानी इमारतें इसकी साक्षी रही हैं। सिर्फ इतना ही काफी है, यह परिसर हमारे लिए पूजनीय होने के लिए। मेरी छाती भी चौड़ी हुई और आंखे नम भी हुईं और गला रुँध भी गया – सब साथ साथ। मैंने शुरू के दिनों की यहाँ के senate की कुछ बहसें देखी हैं – मालवीय जी, भगवान दास जी के बीच की बहसें। किस उच्च कोटि की, विद्या और ज्ञान को लेकर बहसें, विद्यार्थियों की मानसिकता कैसे प्रभावित होती हैं उन्हें लेकर सूक्ष्म गहरी बातें।
इन्हें हर शिक्षक को पढ़ना चाहिए और विद्यार्थियों को भी। इसकी व्यवस्था यहाँ के administration और academicians को करनी चाहिए। यहाँ के लोगों को अपनी धरोहर का पता लगेगा, पता लगेगा कि आज की दोनों संसद में और यहाँ की senate में बहस के स्तर में ज़मीन आसमान का फर्क है। रोना भी आयेगा (अच्छा है, अंदर कुछ आग लगेगी) और गर्व से छाती भी फूलेगी। मुझमे यह दोनों हुआ, इसलिए कह रहा हूँ। अनुभव से।
यह भी याद आया कि यह वह विद्या का स्थान रहा है जहाँ के उपकुलपति, आचार्य नरेंद्र देव ने दीक्षांत समारोह के वक्त भारत के प्रधानमंत्री को हिन्दी में बोलने का अनुरोध किया पर जब वे अंग्रेजी में बोले तो उन्हें बीच बीच में रोक कर उसका सीधा अनुवाद आचार्य जी ने किया। हम इस पर सीना फुला सकते हैं, इस तरह की शख्सियत के कुलपति पर, जिसमें प्रधानमंत्री को बीच में रोकने का साहस था और रो सकते हैं कि अब क्या हो गया? लोग कहते हैं, जो बीत गया सो बीत गया, पर मेरे जैसे यह मानने वाले हैं, कि जो सच है, शुभ है, साहस देने वाला है, ज्ञान है वह लुप्त हो सकता है पर मरता नहीं। उनके बीज रहते हैं – परम्पराओं में लुके-छिपे रहे, हमारे DNA में रहे, हमारी खोई स्मृति में रहे, रहते ज़रूर हैं। समय आयेगा, सच्चा प्रयास होगा, तो उभर आएंगे, नए पल्लव लेकर। स्मृति जागरण एक तरीका है।
वहाँ तीन दिन रहना हुआ और तीन दिनों में तीन संवाद हुए। एक आई आई टी के नए लगभग 800 छात्रों के बीच (https://www.youtube.com/watch?v=oW5PQw9ge5s&feature=youtu.be), दूसरा बीएचयू के अँग्रेजी विभाग और संस्कृति विभाग के लगभग 125 शोध कर रहे और PhD कर रहे छात्रों एवं शिक्षक गणों के बीच, जहाँ बहुत सी बातें हुई और हिन्दी में हुई और आखरी chemical engineering विभाग के सभागार में लगभग 125-150 शोध छात्रों एवं शिक्षक गणों के बीच । अच्छी बातें हुई। प्रश्न भी अच्छे हुए। मुझे लगा कि संप्रेषणा हुई, कहीं मैं लोगों के हृदय को छू पाया। मन किया कि कभी 10-15 दिन यहाँ आ कर रुकूँ और सहज गति से यहाँ की दुनिया के लोगों के साथ संवाद कर सकूँ।
——————————————————क्रमश:——————————————————
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