हमारे घर में नागपंचमी के दिन नागदेवता की पूजा होती थी। हमारे पुरोहित छगन महाराज सुबह से ही आकर चंदन घिसने लगते। घिसा हुआ चंदन एक कटोरी में भरते। फिर एक दातुन को कुचल कर उसकी कूची बनाते। एक आले को गोबर से लीपा जाता। कूंची से उस लिये हुए आले में नागदेवता के चित्र बनाये जाते। फिर इन चित्रों की पूजा होती। घर की कोई सुहागिन पूजा करती।
पिताजी थे, तब तक माँ पूजा करती। पिताजी की मृत्यु के बाद बहन पूजा करने लगी। जब बहन भी हमें छोड़ कर चली गयी, तब पुरोहित जी ने आदेश दिया, कि परिवार के सब से छोटे सदस्य के हाथों पूजा होनी चाहिए। इस प्रकार इस पूजा का भार मेरे ऊपर आ गया।
माँ पूजा करती थी, तब मेरे मन में नागदेवता का आकर्षण तो था, परंतु इससे भी अधिक कुतूहल एक और प्रथा का था। सवा सेर दूध को खूब घोलकर उस में शक्कर, केसर और इलायची डालकर एक सुंदर बर्तन में भरकर तीसरी मंजिल के कमरे में रख दिया जाता और दरवाजे पर चटखनी लगा दी जाती। दूसरे दिन सुबह बर्तन खाली मिलता, तब उसे मांजा जाता। मेरे मन में हमेशा जिज्ञासा उठती, कि यह दूध कौन पी जाता होगा। मैंने कई बार माँ से पूछा भी, लेकिन उसने सुना अनसुना कर दिया। बालकों के लिए जिज्ञासा के अंसतुष्ट रह जाने जैसा दारुण दु:ख और कोई नहीं होता, लेकिन बुजुर्ग लोग इस बात को शायद ही समझ पाते हैं।
कई बार मैंने निश्वय किया, कि चूपचाप ऊपर जा कर देखूंगा, कि दूध कौन पी जाता है, परंतु नागपंचमी आती और मैं भूल जाता, लेकिन जिस साल से मैं पूजा करने लगा, उस समय मेरी उम्र पंद्रह सोलह वर्ष की हो चुकी थी। मैं हाईस्कूल में पढता था। पंचमी के दिन नियमानुसार छगन महाराज आये, चंदन घिसा गया, पतली दातुन की कूंची तैयार हुई और चंदन से नागदेवता का चित्र बना। पूजा करके मैंने साष्टांग प्रणाम किया। माँ ने कहा, कि परीक्षा में पास होने का आशीर्वाद मांग ले। आधुनिकता के अभिमान वश मैंने ने मुँह से तो कुछ नहीं कहा, पर अंतर ने यही बात कही। माँ नियमानुसार दूध रख आयी। इस बार मैं कुतूहल को न रोक सका। माँ से पूछ ही बैठा, कि यह दूध कौन पी जाता है। माँ ने सोचा, कि लड़का अब समझदार हो गया है। अब डरेगा नहीं; कहने में कोई हर्ज नहीं।
स्नेह से बोली “बेटा अपने परिवार के रखवाले नागदेवता हैं। हर साल वे हमारी रक्षा करने के लिए आते हैं। हम अपनी श्रद्धानुसार उनकी पूजा अर्चना करते हैं और उन्हें दूध पिलाते हैं।”
“क्या माँ, तू भी क्या पुराने जमाने की पोंगापंथी की बातों में विश्वास करती है??? साँप भी कहीं दूध पीता होगा… बिल्ली पी जाती होगी। मुझे तब तक नये जमाने के अविश्वास की हवा लग चुकी थी।”
माँ चौंक पड़ी। दु:खी होकर बोली, “नहीं बेटा ऐसा नहीं कहते। वे तो हमारी कुल परंपरा के देवता हैं।”
माँ की भावना देख कर में चूप हो गया। विवाद कर के उसका मन दुखाने की मेरी इच्छा नहीं हुई। मैं उठकर चला गया, पर जाते जाते नागदेवता के प्रसाद के पाँच बताशों में से दो उड़ा लिये।
शाम हुई। मेरा कुतूहल शांत नहीं हुआ था। मैं इस बात की थाह पाने का निश्चय कर चुका था। किशोरावस्था के आरंभिक वर्षों में कुतूहल और जिज्ञासा इतने प्रबल हो, तो इस में आश्चर्य की क्या बात। मैं दिन रहते ही ऊपर के कमरे का चक्कर लगा आया। दरवाजा बंद था। चटखनी खोलकर कर चोर की तरह भीतर गया; दूध वैसा ही रखा था। मैंने धीरे से एक खिड़की भीतर से खोल दी और रात को आकर देखने का निश्चय किया। दरवाजा खोलने के झंझट में कही माँ आ जाय और पकड़ा जाऊं, इस डर से खिड़की खोल दी थी, ताकि बाहर से ही देख सकूं।
रात हुई; दस बजे होंगे; घर में सब सो गये थे। माँ भी घर के खिड़की दरवाजे ठीक से बंद कर के निश्चित सो रही थी। मैदान साफ देख कर मैं दबे पाँव ऊपर पहुँचा। टॉर्च पहले से ही साथ रख ली थी। तीसरी मंजिल तक पहुँचते – पहुँचते दिल धड़कने लगा। एक भय था, कि माँ कहीं जाग गयी, तो नाराज होगी और दूसरा अज्ञात भय था, नाग की कल्पित मूर्ति का। लेकिन भय का मुकाबला न कर सके, तो बालक की जिज्ञासा कैसी। मैं ऊपर पहुँच गया। शाम को खोली हुई खिड़की में से टार्च की रोशनी कमरे में डाली। जो देखा उसे देखकर डर के मारे आँखें फट गयी। शरीर में रोमांच हो आया और पाँव काँपने लगे। एक बड़ा भारी प्रचंड नाग कूडे पर बैठा हुआ दूध पी रहा था। प्रकाश पड़ने से उसने फन ऊपर किया और दो-तीन बार हिलाया। गले पर सुंदर आँखों जैसी आकृति थी। टार्च जैसे अपने आप बुझ गयी और मैं भागा भागा आकर बिस्तर पर पड़ा, पर नींद किसी तरह नहीं आयी; डर के मारे बुरा हाल था। अंत में माँ के बिस्तर पर गया और चद्दर सरका कर उसके अंक में जा छिपा। माँ चौंक कर जाग गयी। मुझे काँपता देखकर उसके मन में न मालूम कैसी कैसी अमंगल शंकाएँ उठी होगी। माँ ने पूछा, “क्यों बेटा इतना काँप क्यों रहा है? क्या हुआ? कोई सपना – वपना देखा क्या?”
”नहीं माँ।” मेरी कंपकंपी चलती रही।
“तो क्या हुआ? कह दे बेटा, में नाराज नहीं होऊगी।” माँ मेरी पीठ पर हाथ फेरने लगी और मुझे छाती से लगा लिया।
“माँ” मैं सिर्फ इतना ही कह सका और फिर मैं रो पड़ा।
माँ को लगा, कि लड़के ने सचमुच ही कोई भयानक स्वप्न देखा है। मुझे थपकते हुए वह स्नेह से बोली, “क्या हुआ बेटा? बता दे कोई डरावना सपना देखा?”
“माँ मैंने नागदेवता को देखा।”
“सपने में?”
“नहीं माँ।”
“तब?”
“ऊपर के कमरे में।”
“तू वहाँ गया ही क्यों था?”
“नागदेवता को देखने।”
“तो इस में डरने की क्या बात है? अच्छा ही हुआ। तुझे नागदेवता के दर्शन हो गये। यह तो तेरा सौभाग्य है बेटा, अब तेरा बाल भी बाँका नहीं होगा। तेरा कल्याण होगा। चल, अब यहीं सो जा।”
माँ के अंक में छिप कर नींद कब आ गयी, यह मालूम ही नहीं पड़ा।
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