आधुनिकता या आधुनिक व्यवस्था, ये दोनों ही गुरूजी के अध्ययन विषय नहीं हैं। उनके अध्ययन का मुख्य विषय तो भारतीयता और भारतीय समाज व्यवस्था ही है। पंरतु, गुरूजी की बातचीत में आधुनिकता के बारे में जितना कुछ पता चलता है, उतना अन्य कहीं मिलता, कम से कम मेरे लिए तो मुश्किल ही जान पड़ता है। उनसे इस विषय में पूछने पर वो आधुनिकता की कोई बंधी-बंधाई परिभाषा देने या लक्षणों को गिनाने के बजाय, उसकी भारतीयता से तुलना करते हैं और उस माध्यम से आधुनिकता की ढेरों बातें अपने आप पता चलते चली जाती हैं।
उनका कहना है, कि आधुनिक व्यवस्था हमारी भारतीय व्यवस्था की पूरी उल्टी है, एकदम से। जो-जो, जैसा-जैसा हम लोग करते हैं, करते थे, आधुनिक व्यवस्था एकदम उससे उल्टा करती है। जैसे, हम लोग सिला हुआ कपड़ा नहीं पहनते थे, आज सिला हुआ कपड़ा पहनने लग गए हैं। लोग नंगे सिर नहीं रहते थे, आज नंगे सिर रहने लग गए हैं। पहले बिना मूंछ का कोई नहीं रहता था, आज मूंछ रखने वाला शायद ही कोई रह गया है। सारा का सारा एकदम उल्टा हो गया है।
पहले अन्न नहीं बिकता था। आज अन्न बिकने लगा है। दूध-दही नहीं बिकता था, दूध-दही बिकने लग गया है। पहले लोगों को दूसरों के हाथ तक का खाना खाना एकदम अस्वीकार था, घर के बाहर का खाना खाना लोगों को अपमान लगता था, लोग छिप-छिपाकर, बहुत ही मज़बूरी में बाहर खाना खाते थे। आज बाहर का, होटलों का खाना खाना शान माना जाता है। आधुनिकता में, ये सारा का सारा कुछ उल्टा ही है।
हमारी सारी पढ़ाइयाँ ‘मैं’ और ‘मुझे’ खत्म करने के लिए हुआ करती थीं। हमारी पूरी पढ़ाइयों का उद्देश्य इन दो चीजों को खत्म करना ही होता था, आज की पूरी पढ़ाइयाँ ‘मैं’ और ‘मुझको’ मज़बूत करने के लिए ही हैं। आज हर बच्चा कहता है कि ‘मैं’ ये बनना चाहता हूं, ये करना चाहता हूं और ‘मुझे’ ये पसंद है। और बच्चा ही क्यों, बच्चों के माँ – बापों में तो बच्चों से ज्यादा पागलपन है, बच्चों का भविष्य बनाने का, उनको ‘कुछ’ बना देने का। पहले सारा जोर ‘सहज’ और ‘साधारण’ बनने पर होता था। आज सारा जोर ‘असाधारण’ (extra ordinary) बनने पर होता है।
पहले ‘उत्तम खेती, मध्यम व्यापार और करें चाकरी, कुकुर निदान’ की बात हुआ करती थी। आज ‘चाकरी और नौकरी’ ही अत्युत्तम हो गई है।
‘मज़बूरी में फायदा उठाना’ हमारे यहाँ पाप माना जाता रहा है। आधुनिक व्यवस्था में ‘मज़बूरी में फायदा उठाना’ business माना जाता है, व्यापार माना जाता है। हमारे पास में जहाँ-जहाँ व्यक्ति मज़बूर होता है, वहाँ-वहाँ सुविधा कर दी जाती थी। इसीलिए मज़बूर होने वाली जगहों पर धर्मशालाएँ बनी, लंगर लगे, प्याऊ चले। आधुनिक व्यवस्था में ऐसी सारी जगहें महत्वपूर्ण अवसरों (opportunity) और gaps के रूप में जानी जाती हैं। आज उन सारी जगहों पर होटलें बनती हैं। Restaurant बनते हैं। पानी की बॉटल, पानी के पाउच बिकते हैं।
हमारा व्यापार ‘लाभ’ के लिए होता था। आज का व्यापार ‘लोभ’ के लिए होता है। जब व्यापार ‘लाभ’ के लिए होता था, तो उसमें सभी तरह के ‘लाभ’ की बात होती थी। उसमें पुण्य कमाना भी एक लाभ था। लोगों की दुआ कमाना भी एक लाभ था। आज के व्यापार में मात्र धन का लाभ ही सर्वोपरि हो गया है। ’निर्लिप्तता’ हमारे जीवन के प्रमुख सिद्धांतों में से एक था। आज ‘संग्रह’ ही सबका जीवन मूल्य बन गया है। हमारे लोग ‘तृप्ति’ की बात करते थे, कि क्या-क्या करने से व्यक्ति तृप्ति से जिएगा। और आज क्या-क्या करके ‘तृष्णा’ बढ़ा सकते हैं, उसकी बात होती है। ‘विज्ञापन’ की संकल्पना इसी मूलभूत सिद्धांत से ही निकली है। एकदम पूरे से उल्टा ही है, सब कुछ।
‘आत्मीयता से व्यवहार’ भारतीय मानसिकता है, जबकि ‘व्यवहार से आत्मीयता’ पाश्चात्यता / आधुनिकता है। आत्मीयता से व्यवहार तभी संभव है, जब सामने वाले से किसी तरह की कोई अपेक्षा नहीं होती है। भारतीयता में कर्तव्यों के सहज निर्वाह की बात होती है, सामने वाले से बिना कोई अपेक्षा किए। वहीं आधुनिक मानस हर चीज में व्यावहारिकता की बात करता है। उसकी आत्मीयता व्यवहार के लिए ही होती है।
पहले लोग अपने जातिगत काम-धंधे ही कर सकते थे। कोई भी किसी दूसरे का काम नहीं अपना सकता था, नहीं हथिया सकता था और इसके माध्यम से सबका रोज़गार और उस माध्यम से सबका आहार पूरी तरह सुरक्षित रखा गया था। आधुनिक व्यवस्था में कोई भी, कहीं भी, कोई भी धंधा-पानी करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है। आज कोई भी किसीका भी रोज़गार, किसीकी भी आजीविका अपना सकता है, हथिया सकता है, कब्जा कर सकता है।
आज मोहल्ले में एक धोबी के होते हुए, कोई दूसरा भी उसके बाजू में धोबी का काम चालू कर सकता है। इसी तरह एक किराना दुकान के बाजू में दूसरी किराना की दुकान, शहर में पर्याप्त ऑटो होने के बावजूद भी ढेरो नए ऑटो, किसी एक कंपनी / फैक्टरी के खुलते ही, दूसरे उद्योगपति द्वारा उसी वस्तु / कार्य से संबंधित उससे भी बड़ी दूसरी कंपनी / दूसरी फैक्टरी बिना किसी रोक-टोक के, बिना किसी अपराध बोध के, खुल सकती है; जिसके माध्यम से पहले से चल रही आजीविका पूरे या आंशिक रूप से बंद हो सकती हैं।
इसी तरह, हमारी मार्केट पद्धति भी बहुत ही बंधी हुई थी। कोई भी, कहीं भी, किसीको भी अपना सामान नहीं बेच सकता था। सभी के घर और गांव बंटे हुए थे। लोग अपने बंधे हुए गांवों और बंधे हुए घरों में ही अपना सामान दे सकते थे। इस व्यवस्था के माध्यम से सबके बाजा़र की, सबकी आजीविका की और सबके आहार की सुरक्षा, बड़ी मज़बूती के साथ सुनिश्चित की गई थी।
आज की व्यवस्था में पूरा का पूरा मार्केट खुला है। कोई भी, कहीं भी, किसीको भी अपना सामान बेचने के लिए, किसीके भी मार्केट पर कब्जा करने के लिए स्वतंत्र है। किसीके भी बाजा़र की, किसीकी भी आजीविका की, किसीके भी आहार की कोई सुनिश्चितता नहीं है। बड़े से बड़ा उद्योगपति भी अपने मार्केट के प्रति निश्चिंत नहीं है। यह असुरक्षा की भावना व्यक्ति से क्या-क्या करवाते जाती है, यह हम सब आज समाज में देख ही रहे हैं। लोगों के संग्रह करने की कोई सीमा ही नहीं रह गई है। समाज में असुरक्षा की गहरी पैठती भावना, तृष्णा के रूप में हमारे सामने है।
(क्रमश:)
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