भारत एक ‘कृषि-प्रधान’ देश है, ऐसा हम सबको पढ़ाया गया है। परंतु, ऐसा कभी रहा नहीं है। गुरूजी (रवीन्द्र शर्मा जी) की दृष्टि से देखने पर भारत हमेशा से एक ‘उद्योग-प्रधान’ देश ही रहा है। यहाँ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था जरूर कृषि-प्रधान रही है। यहाँ का घर-घर एक कारखाना था। पूरा देश कारीगरी प्रधान देश था। आज की तरह हर किसी को कृषि का न तो अधिकार था और न ही हर किसी की कृषि कार्य में दक्षता थी। ढेर सारी कारीगरी जातियों (ज्ञातियों) – लोहार, कुम्हार, सुनार, बॅंसोड़, बढ़ई आदि की तरह कृषि कार्य में संलग्न लोगों की भी एक जाति थी, जिन्हें कुनबी, कुर्मी आदि कहा जाता था।
परंपरागत कुनबी (कुर्मी) जाति के अतिरिक्त अन्य किसी भी जाति के लोगों को कृषि कार्य में संलिप्त होने की जरूरत तक नहीं थी। इस तरह से हमारी सारी कृषि योग्य जमीन और हमारा सारा कृषि कार्य, कृषि क्षेत्र की पीढ़ियों से ही उसकी विषेषज्ञ जाति (ज्ञाति) के पास ही सुरक्षित थी। कुनबी लोगों के अतिरिक्त शेष सभी लोग कारीगरी या भिक्षावृत्ति के कार्य में ही लगे हुऐ थे।
भारत को हमेशा से ही ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता रहा है और इसी कारण यह बाहर के सभी आक्रमणकारियों का पसंदीदा देश रहा है, परंतु हमने शायद ही कभी गौर किया है कि भारत सोने की चिड़िया बना कैसे! और यह केवल एक बार के लिए सोने की चिड़िया नहीं बना था, जिसकी धन-दौलत, सोना आदि लूट कर उसको कंगाल कर दिया गया हो। हर बार लुटने के बाद, यह फिर से समृद्ध, फिर से सोने की चिड़िया बन जाया करता रहा है। इसीलिए कहा भी गया है कि ‘कुछ बात है, कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’। हमारा हर बार, बहुत ही शीघ्र गति से पुनः समृद्ध हो जाना ही, हम पर ढ़ेरों आक्रमणों और इस देश में लगातार हुई लूट का मुख्य कारण भी रहा है। बड़ी बुरी तरह से लुटने के बाद भी हम हर बार फिर से उतना ही समृद्ध होते रहते हैं। हमारे देश के सोने की चिड़िया कहलाने और कहलाते रहने का गर्व तो हमें हैं, मगर उसके ऐसा कहलाने और ऐसा बनने के कारणों के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम ही है। हमने शायद ही कभी गौर किया है कि यह बार-बार, लगातार सोने की चिड़िया बनते कैसे रहा है!
क्योंकि हमारे देश में हमेशा से अनाज, दूध, दही आदि बेचना पाप ही रहा है। अभी 20-25 साल पहले तक भी बहुत से गाँवों में दूध, दही, अनाज आदि नहीं बेचा जाता था। अनाज हमेशा से केवल लेन-देन की चीज़ ही रहा है, तो हमारा देश अन्न बेचकर तो ‘सोने की चिड़िया’ बना नहीं होगा!
इसी तरह, अंग्रेजों की 150-200 साल की गुलामी और उनके देश से चले जाने के बाद के 60-65 साल के उसी प्रकार के तंत्र के बावजूद आज भी तथाकथित आदिवासी इलाकों में जाने पर महिलाओं के शरीर पर कम से कम दो-चार किलो की चांदी तो ऐसे ही देखने को मिल जाती है, पाव-पाव किलो के पांजोल होते हैं, सौ-डेढ़ सौ तोले (एक-डेढ़ किलो) का कमर का पट्टा होता है, पौन-एक किलो की गले की हँसली होती है, इन सबके अलावा, हाथ के, पैरों के, बाजुओं के, सिर के, उंगलियों आदि के भी ढ़ेरों आभूषण होते हैं। कभी हमने सोचा है कि इनके पास इतनी चांदी आई कैसे होगी? जंगल में रहने वालों के पास में? आदिवासियों के पास में? क्या ये लोग झाड़-पेड़ों में से चांदी निकाला करते थे, या जड़ी-बूटियों से तैयार करते थे? जिनको हम आदिवासी कहकर, समाज की मुख्य धारा से इतना कटा हुआ मानते आए हैं, उनके पास में इतनी चांदी आखिर आई कहां से?
फिर देखने वाली बात यह भी है कि भारत में सोने की कुछ खदानें, खानें तो पाई गईं हैं, पर चांदी की किसी भी खदान का पता नहीं चला है। हिंदुस्तान में चांदी कभी खदानों से निकली ही नहीं है। सोना निकला है, हीरे निकले है, मगर चांदी नहीं निकली है। फिर इतनी सारी चांदी आखिर आई कहां से? किसी को अचानक बहुत सा लाभ मिल जाने के लिए हम आदतन ‘उसकी तो ‘चांदी’ हो गई’ मुहावरे का प्रयोग करते हैं। गौरतलब है कि मुहावरे में ‘चांदी’ का ही प्रयोग हुआ है, ‘सोना’, ‘हीरा’, ‘मोती’ या ‘पन्ना’ आदि का नहीं।
इतिहास में जिक्र आता है कि पेशवाओं ने जब लाल किले पर हमला किया था, उस समय पूरा लाल किला चांदी की चादर से मढ़ा हुआ था। उन चांदी की चादरों को उखाड़कर, टुकडे़ करके सिपाहियों को तनख्वाह बांटी गई थी, तो प्रश्न वही है कि आखिर इतनी चांदी आई कहां से?
इसी तरह, हमारे देश में बहुत से देशों के आक्रमण की बात तो हमें ज्ञात है, पर दूसरे देशों पर आक्रमण कर वहां से बेशकीमती चीजें, धन-दौलत लूट कर भारत देश में लाई गई है, इस तरह का भी कोई उल्लेख हमारे या विश्व के अन्य किसी इतिहास में नहीं मिलता है। अर्थात्, हमारे यहां की धन-दौलत, सोना, चांदी, हीरा आदि बाहर के देशों से लूटकर भी नहीं लाई गई थी।
तो फिर इतनी सारी धन-संपदा हमारे पास आई कहां से! स्वाभाविक है, ‘उद्योग’ एवं ‘व्यापार’ से। व्यापार भी उन वस्तुओं का जो कि हमारे उद्योगों द्वारा निर्मित की गईं हैं, न कि कृषि उत्पादों के व्यापार से। हमारे कारीगरों, उनके कारीगरी सामर्थ्य और उनके कारखानों की बदौलत ही भारत सोने की चिड़िया कहलाया। लोहा, नमक, रत्न, प्रसंस्करित मसाले, ढेरों अन्य कारीगरी सामान आदि व्यापार की प्रमुख वस्तुएँ रही हैं। 19 वीं शताब्दी तक विश्व निर्यात के क्षेत्र में भारत के अग्रणी बने रहने के कई प्रमाण आज उपलब्ध हैं। भारत के उद्योग, भारत की कारीगरी न केवल घर-घर में व्याप्त थी, बल्कि बहुत ही उत्तम दर्जे की थी। इस दृष्टि से देखने पर भारत हमेशा से एक उद्योग-प्रधान देश ही नज़र आता है। अंग्रेजों के भारत में आगमन से पहले और उसके बहुत समय बाद तक भारत की विश्व व्यापार में 25-30 प्रतिशत की हिस्सेदारी रहा करती थी।
भारत को ‘कृषि प्रधान’ देश का ठप्पा लगाना और उसके माध्यम से हमारी अपने देश के बारे में इस तरह की छवि का निर्माण करना, अंग्रेजों की एक सोची-समझी चाल ही थी। एक ओर उसे अपने बढ़ते साम्राज्य और उनके नए-नए विशालकाय उद्योगों (18 वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद से) में लगने वाले कच्चे माल के लिए कई तरह के कृषि उत्पादों की जरूरत थी तो दूसरी ओर, इन बड़े-बड़े उद्योगों से निकले उत्पादों की सरलता से बिक्री के लिए भारत के गांव-गांव में फैले विकेन्द्रीकृत उद्योगों (कारीगरी) को बंद करना आवश्यक था। अंग्रेजों ने अपने विशालकाय, केन्द्रीकृत उद्योगों को सरल मार्केट उपलब्ध कराने के उद्देश्य से, भारतीय कारीगरों से मिलने वाली कठिन प्रतियोगिता को खत्म करने के लिए, साम-दाम-दंड-भेद की नीतियां अपनाकर, हमारे कारीगरों को धीरे-धीरे उनकी कारीगरी विधाओं से बेदखल कर दिया और उन सभी को उनकी कारीगरी के विकल्प के रूप में कृषि के कार्य में विस्थापित कराया। इस माध्यम से उन्होंने अपने उद्योगों को निरंतर कच्चे माल की उपलब्धता (कृषि कार्य में नए लोगों के विस्थापन से) और उन उद्योगों को सरल-सुगम मार्केट (कड़ी प्रतियोगिता दे सकने वाले कारीगरी उद्योगों के पलायन से) दोनों ही उपलब्ध कराया।
अंग्रेजों और उसके बाद से आज आजादी मिलने के 65-70 साल बाद तक हमारे बारे में हम पर थोपी गई हमारी गलत धारणाओं के कारण (कि हम एक कृषि-प्रधान समाज हैं), हमारी नीतियां, हमारे सारे प्रोत्साहन कृषि क्षेत्र को दिए गये और उसका नतीजा हमारे सामने है। आज एक ओर भारत की विश्व व्यापार में भागीदारी 20-25 फीसदी से घट कर 1-2 फीसदी के आसपास आ गई है और दूसरी ओर कृषि क्षेत्र में मिले ढेरों प्रोत्साहन के कारण और कारीगरी से बेदखल लोगों को और कोई विकल्प न सुझाए जाने के कारण कृषि कार्य में आवश्यकता से ज्यादा लोग लगे हुए हैं, जिसके कारण यह क्रमश: व्यापारिक घाटे की आजीविका रह गई है।
वर्तमान में भी परिस्थिति बहुत ज्यादा बदली नहीं है। कारीगरी क्षेत्र (बहुत सारी नई कारीगरी विधाओं के साथ) अभी भी देश में कृषि के बाद सबसे बड़ा रोज़गार प्रदायक क्षेत्र है। विभिन्न अध्ययनों के माध्यम से देश में कारीगरी पर आधारित जनसंख्या 25 से 30 करोड़ आँकी गई है, परंतु जिस तरह का आर्थिक व्यवस्था तंत्र कृषि क्षेत्र के लिए प्रदान किया जाता रहा है – विशालकाय ऋण माफी कार्यक्रम, ऋण प्रदायक तंत्र, किसान क्रेडिट कार्ड, फसल ऋण, कृषि सहकारी समितियाँ, कॉपरेटिव बैंक, व्यवसायिक और निजी बैंक, Priority sector lending, खाद एवं बीज आदि में मिलने वाली विशालकाय छूट, विभिन्न तरह की तकनीकी सहायता तंत्र, स्वतंत्र मंत्रालय, विभिन्न विभाग, कृषि विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, सरकारी एवं गैर-सरकारी रिसर्च संस्थाएँ, देश भर में फैला कृषि विज्ञान केन्द्रों का जाल, भंडारण एवं विपणन तंत्र (समर्थन मूल्य, विपणन संघ, बोर्ड, निगम, logistics and warehousing boards, निगम और इन सबके द्वारा संचालित ढेर सारे छूट कार्यक्रम इत्यादि), फसल बीमा एवं इसके अलावा अनेकों व्यवस्था जनित तंत्र, बजटीय प्रावधान इत्यादि के मुकाबले संपूर्ण कारीगरी क्षेत्र एकदम अछूता सा रह गया है। कृषि क्षेत्र के मुकाबले लगभग आधी जनसंख्या के ‘कारीगरी’ क्षेत्र में आश्रित रहने के बावजूद कृषि क्षेत्र में किए जा रहे सरकारी खर्च और प्रयासों की तुलना में एकदम नगण्य सा हिस्सा ही कारीगरी क्षेत्र में किया जा रहा है।
————————————————————– क्रमश: ————————————————————–
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