बीएचयू तो काशी का एक हिस्सा है, पर एक अद्भूत इंसान की वजह से थोड़ा बहुत वाराणसी भी घूमना हुआ और कुछ गुणी सज्जनों से मिलना भी। इसकी वजह बने डॉक्टर कृष्ण कान्त शुक्ल – अमरिका में कई वर्ष Physics और खगोल शास्त्र पढ़ाने के बाद संगीत को अपना बना लिया, Physics छूट गई, या छोड़ दी और वापस अपने घर काशी आकर रहने लगे। संगीत से प्यार और अपने गांवों, उसके लोगों में बसा सहज ज्ञान और अपनी संस्कृति को समझने की उत्कंठा।
माँ-बाप यहीं के, यहाँ की संस्कृति में रचे-बसे। माँ इसी विश्वविद्यालय की महिला कॉलेज की पहली प्राध्यापिका रही हैं। मालवीय जी की स्मृतियाँ ज़िंदा हैं। पिता गोरखपुर विश्वविद्यालय के उप कुलपति रहे हैं। उन्हीं के माध्यम से मूलतः केरल के, पर वाराणसी में जन्मे और यहीं रचे-बसे जगदीश पिल्लई से मुलाक़ात हुई। मेरा सौभाग्य रहा यह। ये वाराणसी के चप्पे चप्पे से वाकिफ ही नहीं है, उससे प्रेम भी करते हैं। इनके मारफत ध्रुपद (गायन) शैली के, आज के दिन जो जीवित हैं, उनमें सबसे अग्रणी पुरोधा, प्रोफेसर ऋतिक सान्याल से भेंट हुई। उन्हें सुन तो नहीं पाया, पर बातें हो पायी। अत्यंत सहज व्यक्ति, और अपने हुनर में माहिर। उसी विद्यालय के एक और पुरोधा प्रोफेसर बालाजी जो वाइलन बजाते हैं उनसे भी मुलाक़ात हुई। उन्होंने तो रात को अपने घर ही बुला लिया। संगीत उनमें पाँच पुश्तों से है। मूलतः तमिलनाडु के, पर पिता के जमाने से काशी में बसे हैं। अभी भी पूरा रहन सहन और ठाठ तमिलनाडु से जुड़ा हुआ है, जिसमें वाराणसी की मस्ती और अभिमान का पुट भी जुड़ गया है। सुंदर, सहज मिश्रण। उन्होंने पारंपरिक ढंग से बना बढ़िया दोसा, चटनी और सांभर के साथ, और कॉफी तो पिलाई ही साथ साथ तीन राग (जयजयवन्ती, केदार और भैरवी) सुनाकर एक छोटी सी महफिल का रंग भी भर दिया। दो चेले भी थे, जिनमें एक श्रीलंका से आया था, जहां एक दो वर्ष पहले उन्हें उच्च समान दिया गया था और वहाँ के राष्ट्रपति ने ज़मीन पर इनके साथ बैठ कर इनका वाइलीन सुना था। जाते जाते इन्होंने बनारसी पान भी खिलाया। अपनी तो शाम बन गई।
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि रही कुंड में बाबा कीनाराम अघोर संस्थान पर जाना। वहाँ एक ऐसी पुस्तक हाथ लग गई, जिसे मैं चुस्की ले कर पढ़ रहा हूँ – “औघड़ की गठरी”। मन में, बिना मिले ही अवधूत भगवान राम के लिए अपार सम्मान रहा है। उनके बारे में अपने हाईजैकर नेपाली मित्र दुर्गा सूबेदी से सुना था। Emergency के जमाने में स्वर्गीय श्री बी पी कोइराला (राजा के खिलाफ क्रान्ति के नेता और नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री) ने दुर्गा को औघड़ भगवान राम के यहाँ रुकवा दिया था – पुलिस से बचाने के लिए। दुर्गा उनके कुछ किस्से सुनाता था, जब हमारी दोस्ती हुई – Emergency के बाद। उनके पास इन्दिरा गांधी, चन्द्रशेखर जी से लेकर नामी-गरामी कितने ही लोग आते थे और साधारण जनों की तो बात ही क्या? औघड़ बाबा के सामने तो सब एक जैसे ही थे। वे कुष्ठाश्रम चलाते थे, रोगियों की सेवा खुद भी करते थे, पर पूरी तरह से निर्लिप्त, अपनी मौज में रहते थे। वे बिना मिले, हमेशा ही मुझे आकर्षित करते रहे। अनायास यह किताब उठा लाया और फिर पता चला, किसी (केदार सिंह जी से) से सुनकर किसी (श्री दयानंद पांडे जी) ने ‘उन पर’ लिखी है। “औघड़ की गठरी”। लगा आखिर मुलाक़ात हो ही गई। साधारण पर कितनी सुंदर किताब। हिन्दी और बीच बीच में मीठी भोजपुरी। क्यों नहीं लिख पाते हम लोग अब उस तरह – सहज, मिठास से भरा साहित्य?
कहाँ और कब यह देश, झूठी विद्वता, झूठे दिखावे में पड़ गया? अङ्ग्रेज़ी के चक्कर में अपनी बोलियाँ ही हम जैसे भूल गए हों – ऐसी बोलियाँ, जहां न सिर्फ मिठास, सहजता, ईमानदारी, परलोक ज्ञान, हमारे साधारण समाज में बसा हुआ सहज ज्ञान है। औघड़ भगवान राम को मानने वाले साधारण लोग ही ज़्यादा थे। हमारे गाँव के लोग, आज के गुरुओं और भगवानों की तरह सिर्फ पैसे वाले अङ्ग्रेज़ी बोलने वाले नहीं हैं। बनारस में जाकर तुलसी, कबीर, रामानन्द, रविदास, किनाराम, तैलंग स्वामी, लहिरी मोशाय, भगवान राम और न जाने कितने ही – जिनका नाम जानते हो, न जानते हों याद आ ही जाते हैं। श्रद्धा और रोमांच साथ साथ। ऐसा लगता है अवश्य ही आज भी ऐसी महान आत्माएँ यहाँ दृश्य और अदृश्य रूप में विचरण कर रही होंगी, भले ही हमें उनके दर्शन हों या न हों। हम भी तो संदेह से भरे हुए हो गए हैं, अपनी होशियारी में। इस अँग्रेजी पढ़ाई ने और कुछ दिया या न दिया शंका और अहंकार ज़रूर दे दिया, अपनों और अपने के प्रति। इन दो के साथ कैसे कोई महान आत्मा दर्शन दे?यहाँ के मंदिर और कुंड का अब तो यहाँ के रहने वालों को भी ज़्यादा पता नहीं है। विदेशियों को, उन विदेशियों को जिनके बारे में हमारे लोगों को ज़्यादा पता नहीं है, ज़्यादा पता है। माइकेल डेनिनो, जो अब कोइम्बटूर में रहते हैं उन्होंने एक बार काशी के नक्शे पर बारह सूर्य मंदिर दिखाए थे, जो एक elliptical परिधि में हैं, जहाँ हर संक्रांत (जब सौर्य सिद्धान्त वाले भारतीय गणना से नया महिना शुरू होता है) को सूर्य की प्रथम किरण बारी बारी से इन मंदिरों में बनी सूर्य देव की मूर्ति पर पड़ती है। अद्भुत गणित, खगोल और वास्तु कला का ज्ञान! अब किसी को इनकी जानकारी भी ठीक से नहीं है। यह सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसे अनेक चमत्कार यहाँ भरे पड़े हैं। मन करता है, बस काशी में डूब जाएँ – कुछ दिनों के लिए ही सही – यहाँ की अद्भूत विरासत में।
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