गुरुजी [श्री रवीन्द्र शर्मा जी का आगे मैं इसी सम्बोधन के द्वारा उल्लेख करूँगा, जैसाकि उनको सुनने वाले प्रशंसक करते रहे हैं] मूलतः वाचिक परम्परा के व्यक्ति थे। उनका लिखा कोई विस्तृत आलेख अभी तक मैंने देखा – सुना नहीं। यूट्यूब पर कुछेक बातचीतें सुनीं, हालाँकि मूल परिचय हुआ – ‘स्मृति जागरण के हरकारे’ नामक स्मृति-ग्रंथ द्वारा।
गुरुजी की शोध-पद्धति भी मूलतः ‘वाचिक’ परम्परा से ही आयी थी। इस ‘वाचिक’ अथवा ‘मौखिक’ पक्ष पर आशीष कुमार गुप्ता जी ने ‘स्मृति जागरण के हरकारे’ ग्रंथ में प्रकाशित आलेख में पर्याप्त विस्तार से चर्चा की है। अधिक विस्तार हेतु उसे देखा जाना चाहिए।
गुरुजी ने अपने इलाके की पर्याप्त यात्राएँ कीं और इसका तरीक़ा भी बेहद वैज्ञानिक था, हालाँकि गुरुजी की पद्धति को ‘वैज्ञानिक’ कहना उनके चिंतन परिकर से जुड़े विद्वानों को अटपटा लग सकता है, चूंकि वहां ‘वैज्ञानिक’ का अर्थ ‘आधुनिकता’ के अर्थ से संयुक्त रहा है, परन्तु वह पद्धति वैज्ञानिक इस अर्थ में है, कि वहाँ कोई निष्कर्ष पहले निकालकर फिर उसके पक्ष में तर्क नहीं रचे जाते, बल्कि पहले सुदीर्घ ‘ऑब्ज़र्वेशन’ [प्रेक्षण] किया जाता है और फिर उसके द्वारा निष्कर्ष स्वयं उपजते हैं।
यात्रा ‘कुछ’ देखने के लिए नहीं, अपितु ‘कुछ भी’ देखने के लिए – गुरुजी का यह सूत्र प्रयोगशाला की वैज्ञानिक प्रणाली का सामाजिक अनुवाद है। विज्ञान में व्यक्ति के प्रति एक निर्ममता होती है। यदि न्यूटन का सिद्धांत समय के एक पड़ाव पर अनुपयुक्त सिद्ध हो गया, तो न्यूटन के प्रति पर्याप्त आदरभाव होते हुए भी हमने उस सिद्धांत को त्याग दिया और आगे बढ़ गए।आगे यदि आइंस्टीन का सिद्धांत कभी सीमित सिद्ध हो गया, तो उससे आगे बढ़ने में भी कोई संकोच न होगा।
धर्मपाल द्वारा ‘प्रश्न’ को केंद्र में रखना उसी प्रकार का आग्रह है। व्यक्ति की बनिस्बत सत्य के प्रति समर्पण। गुरुजी पर बात कुछ बाद में करने का मन था, परन्तु धर्मपाल जी से संबंधित चर्चा में यह उल्लेख इसलिए कि दोनों की पद्धतियों में अंतर होते हुए भी उसके जुड़ते सूत्र पर कुछ संकेत हो पाए।
धर्मपाल दस्तावेज़ों को तटस्थ भाव से देखते जाते हैं और निष्पत्तियाँ उपजती हैं जबकि गुरुजी समाज में पसरे मौखिक-आख्यानों को देखते जाते हैं और उनसे भी धर्मपाल से मिलती जुलती निष्पत्तियाँ आती जाती हैं। एक पद्धति दस्तावेज़ आधारित और दूसरी मौखिक। इसका अर्थ ये नहीं है कि धर्मपाल मौखिक पद्धति का प्रयोग नहीं करते थे अथवा गुरुजी ग्रंथों का उपयोग न जानते हों; परन्तु उनके यहाँ मुख्य क्या था और गौण क्या वह संकेत करना भर अभीष्ट है।
धर्मपाल की व्यक्तिगत-मनोभूमि को देखने का प्रयास अधूरा रहेगा। परन्तु फ़िर भी जो सूत्र हमें उपलब्ध हैं, उनसे कुछ झलक पाने की कोशिश कर सकते हैं।धर्मपाल ने जो इतना कार्य किया है क्या वह महज़ एक संयोग है! धर्मपाल जी ने बहुत सी बातचीतों में इस बात पर तफसीलवार रौशनी डाली है, कि आखिर वे इस तरह के काम में क्यों लग पाए, लेकिन कुछ बातें जो उन्होंने नहीं कहीं, वे हमें उनके मित्रों के संस्मरणों से उपलब्ध होती हैं। मस्लन वे क्या क्या सुनते थे और खुद किनको पढ़ना पसंद करते थे इत्यादि।
‘धर्मपाल कुछ यादें’ किताब इस लिहाज़ से कीमती है, कि ये वो पक्ष हमें उपलब्ध कराती है, जो खुद धर्मपाल अपनी बातचीतों में औपचारिक तौर पर नहीं कह पाए, हालाँकि कोई भी विनम्र व्यक्ति अपने बारे में बात करने से बचता ही है। ऐसे में उनके मित्रों का यह धर्म होता है, कि आवश्यक पक्षों को वे उद्घाटित करें – सो वह ‘धर्मपाल कुछ यादें’ में प्रकट हुआ है।
धर्मपाल सॉमरसेट मॉम, एरिक एम्ब्लर, रोनाल्ड इंडेन या फिर गिल्बर्ट मरे सरीखे लेखकों के प्रभाव समेटे हुए थे, हालाँकि ‘प्रभाव समेटे’ होना कृष्णमूर्ति को पढ़ने वाले मित्रों को अखर सकता है, चूँकि कृष्णमूर्ति ने प्रभाव समेटे होने को ‘कंडीशनिंग’ कहकर तिरस्कृत ही किया है। ये बात सही है, कि आध्यात्मिक जगत में ‘कंडीशनिंग’ एक नकारात्मक तत्त्व के रूप में आता है। कुछ दिन पूर्व आचार्य सेमधोंग रिनपोचे जी ने भी उस बिंदु पर पुनः बल दिया है, परन्तु इतिहास चिंतन के क्षेत्र में ‘बहुश्रुत’ होना एक अनिवार्यता है। समस्या तब होती है जब हम अध्यात्म जगत के सत्य को और इतिहास चिंतन के सत्य को घुला मिला देते हैं।
भारतीय संतों के दर्शन के अनुसार ये दृश्यमान जगत ‘माया’ है और संसार क्षणिक है। ये बात सही है, परन्तु यदि हममें से कोई किसी रोगी को दवाई देने की बजाय कहे कि दृश्यमान जगत ‘माया’ है और संसार क्षणिक है, अतः दवाई लेकर क्या करना है! वह तो दो तर्कों को ज़बरन घुलाना हो जाएगा। संसार का क्षणिक होना सत्य है – मृत्यु भी सत्य है, परन्तु जीवन में पचास रुपये का आटा पिसवाकर रोटी खाना भी उतना ही सत्य है। थोड़ा तकनीकी ढंग से कहें, तो भारतीय दर्शन में इसे ‘पारमार्थिक सत्य’ और ‘व्यावहारिक सत्य’ का अंतर कहा गया है।
थोड़ा फर्क लेकर जैन दर्शन ने इसे ‘निश्चय नय’ और ‘व्यवहार नय’ का अंतर कहा। अतः धर्मपाल जी में पहले के चिंतकों का प्रभाव ‘कंडीशनिंग’ के अर्थ में नहीं है, अपितु उनके प्रस्थान को रचनात्मक ढंग से आगे बढ़ाने के अर्थ में है। धर्मपाल को सॉमरसेट मॉम सरीखे लेखक से अन्तर्दृष्टियाँ प्राप्त हो सकती थीं।
उनका एक अन्य प्रिय लेखक था – एरिक एम्ब्लर। एरिक एम्ब्लर के बारे में खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ, कि वह स्वयं भी ‘आधुनिकता’ को लेकर बहुत सशंकित रहा। आधुनिकता की आलोचना के साथ एम्ब्लर के संबंधों पर एक पूरी पुस्तक आयी है। एम्ब्लर पर स्वयं कार्ल युंग नीत्शे तथा स्पेंगलर का प्रभाव था।
रोचक बात ये है, कि ये तीनों पूर्व से विशेष तौर पर प्रभावित रहे। तीनों ही पश्चिम की आंतरिक गति को लेकर सशंकित थे। ये प्रभाव एम्ब्लर पर आये। ये कहना कठिन है, कि धर्मपाल इसे कैसे देखते रहे होंगे। ‘धर्मपाल कुछ यादें’ में एरिक एम्ब्लर की एक पुस्तक से भारत को लेकर एक रोचक उद्धरण है। [वह पुस्तक दरअसल ‘एपीटेफ ऑफ अ स्पाई’ है]
इस उद्धरण में एक पात्र भारतीय क्रांतिकारियों की मनोवैज्ञानिक बुनावट बारे में कुछ दिलचस्प बात कहता है। उसके अनुसार जब कोई भारतीय क्रांतिकारी किसी अँगरेज़ अधिकारी को मारने जाता था, तो ऐन वक़्त पर उसे वो अंग्रेज़ अधिकारी केवल ‘शोषक’ होने की बनिस्बत ‘एक मनुष्य’ दिखाई देने लगता था। उस मनोवैज्ञानिक संशय के क्षण में वह निशाना चूक बैठता और अंगरक्षकों द्वारा स्वयं ही मारा जाता। एम्ब्लर की ये दृष्टि अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भारतीय चित्त में हत्या को लेकर एक गहरा द्वंद्व रहा है। वह अपने शोषक को भी सीधे नहीं मारना चाहता। उसके लिए वह शोषक भी अंततः एक मनुष्य ही है।
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