गरीबी के इतिहास में छिपी समृद्धि की अर्थव्यवस्था (भाग ३/३)

आस्था भारद्वाज

रुपेश पाण्डेय

भाग २ को यहाँ पढ़ें।

आज जो हालात है, उसमें हमें अपने बारे में अपने तरीके से सोचने की जरूरत है, जिसके लिए जरुरी है, कि हम देश को बाजार और मानव को उपभोक्ता समझने की नीति से बाहर निकलें। भारत के बारे में कहा जाता रहा है, कि यह गाँव में जीने वाला कृषि प्रधान देश रहा है। अकादमिक और सैद्धांतिक रूप से आज भी यही बात कही जा रही है, लेकिन वास्तविकता शायद इससे कहीं अलग है। यह एक सच्चाई जरूर है कि आज भी देश में 2011 की जनगणना के अनुसार राजस्व गांवों की संख्या 6 लाख से ऊपर है जो कभी सात लाख के आस-पास होती थी, लेकिन क्या केवल गांवों की संख्या के आधार पर ही आज भारत को ग्रामीण जीवन की प्रधानता वाला देश कहा जा सकता है! शायद इसमें विद्वानों की राय एक न हो। 

स्वतंत्रता के बाद जब भारत की नीतियों के निर्धारण का जिम्मा उसके अपने नेतृत्व वर्ग के हाथ में आया, तो निश्चित ही उस समय भारतीय राजनीति के केंद्र में गाँव ही थे। उसका एक बड़ा सीधा सा कारण था कि उस समय भारतीय राजनीति में जो लोग सक्रिय थे, चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, उनका लगाव और जुड़ाव दोनो ही गाँव से था। उनका सीधा संबंध और संपर्क गाँव के लोगों ही नहीं, वहाँ की व्यवस्थाओं से भी था। अधिकांश की वेश-भूषा, भोजन, रहने का तरीका, बातचीत का लहजा सब ग्रामीण परिवेश में रचा – बसा था। भारत के राजनैतिक नेतृत्व वर्ग का यह ग्रामीण जुड़ाव स्वतंत्रता के तीन – चार दशकों तक रहा। विकास की तीव्र गति में यह जुड़ाव कम होता गया। कम्प्यूटर तकनीक, टेलीविजन संस्कृति और बाजार के मोबाईलीकरण के बढ़ते प्रभाव में पिछले तीन दशकों में यह लगाव बहुत तेजी से कम हुआ है, या कहें कि भारतीय राजनीति का नेतृत्व वर्ग ग्रामीण परिवेश में होकर भी शहरी मानसिकता का हो गया है। यह बदलाव नीतियों के प्रभाव को दर्शाता है।

स्वतंत्रता के प्रारंभिक समय से ही हमारी नीति का प्रमुख विषय ‘विकास’ रहा है। उसमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक हर तरह का विकास शामिल है। इस विकास नीति का कोई नियत पैमाना नहीं है, लेकिन उसका आधार नियत है। और वह है व्यक्ति के पास उपलब्ध पूंजी। इस अनियत विकास नीति को समझना हो, तो ऐसे समझा जा सकता है, कि गांवों को अर्धशहरी क़स्बा, कस्बों को नगर, नगरों को महानगर और महानगरों को मेट्रोपोलिटन सिटी बनाना ही विकास है। आज अधिकांश देश अर्ध शहरी क़स्बा, छोटे नगर, महानगर और मेट्रोपोलिटन सिटी – इसी रूप में दिखाई दे रहा है। 15 – 20 वर्ष पूर्व जिन वस्तुओं की कल्पना सिर्फ शहरों में की जा सकती थी, आज उनकी आसान पहुंच गांवों तक बन गयी है।

गांवों को शहरों से जोड़ने की नीति, परिवहन के संसाधनों के तीव्र विकास और मानवीय जीवन की संसाधनों पर बढ़ती निर्भरता के दौर में आज हर वह वस्तु गाँव तक पहुंच गयी है, जिसे हम शहरो में देखते और उपभोग करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं हुआ, कि गाँव उठ कर शहर में आ गये, बल्कि यह इसलिए संभव हुआ कि बाज़ारवादी विकास नीति में बाजार खुद गाँव तक पहुंच गया। बाजार को गाँव तक पहुंचाने की यह नीति भारत और उसके गाँव व गरीब के विकास की नहीं, वैश्विक कॉर्पोरेट और उसके बाजार के विकास की नीति है। इस नीति में गाँव को शहर, गरीब को अमीर और मनुष्य को उपभोक्ता बनने की समझ पैदा करने वाली योजनाएँ बनायी जाती हैं। इसे वैज्ञानिक और आधुनिक बता कर विस्तार दिया जाता है। लेकिन कोरोना संकट ने इस नीति पर प्रश्न खड़ा कर दिया है। विकास की बाजारवादी नीति और मनुष्य की उपभोक्तावादी नीति की बजाय प्रकृति के संरक्षण और मानवीय जीवन में स्वास्थ्य और सुख की बहस चल पड़ी है। सरकारी योजनाओं पर इस बहस का दबाव भारत ही नहीं किसी भी देश के मानव और उसके समाज के लिए कल्याणकारी साबित होगा। यही वक़्त का तकाजा है।


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