गीता प्रेस को गांधी सम्मान : सैद्धांतिक दृष्टि

गीता प्रेस को अंतरराष्ट्रीय गांधी पुरस्कार से सम्मानित किये जाने पर सहमति और असहमति को किस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। कहने वालों ने तो इसे गोडसे और सावरकर को सम्मानित करने जैसा बता दिया है, जबकि अन्य आपत्तियों में गांधीजी के कुछ कार्यों जैसे स्त्री, छुआ छूत से उनके विपरीत मत के उपरांत गांधीजी की व्यक्तिगत आलोचना करने वाले लोग हैं तथा तथा हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को गांधी हत्या के सिलसिले में तीन माह जेल में रखने की बात की जा रही है और रामचरितमानस के संपादक नन्द जी बाजपेयी का नाम हटा देने इत्यादि की बात भी की जा रही है।

गीता प्रेस को दिए गए सम्मान के विरोध और उसकी तरफदारी में अभी तक की गई बातें किसी सिद्धांत का निरूपण किये बिना व्यक्तिगत आक्षेप और प्रशंसा की श्रेणी की होने के कारण अर्थहीन सी ही रही है। विरोध में  कही जा रही बातों का तरफ़दारों ने तथ्यों के साथ जवाब दिया है। गीता प्रेस कहाँ से कहाँ पहुँच गया, धार्मिक साहित्य सस्ते में करोड़ों को पहुंचाया इत्यादि उपलब्धि गांधी शांति पुरस्कार / सम्मान का कारण नहीं बनती।

पक्षधरों द्वारा बताया जा रहा है, कि गांधीजी हनुमान प्रसाद पोद्दार के घर भी जाते थे; उन्हें “परिवार” का भी कहा; उनकी दी गयी सलाह गीता प्रेस ने मानी; कल्याण में उनके लेख छपते थे; उनकी हत्या के बाद शोक सन्देश प्रकाशित किया इत्यादि। इस प्रकार का व्यवहार और तथ्य निर्णायक रूप से कुछ भी सिद्ध नहीं करते, क्योंकि गांधीजी इस प्रकार का व्यवहार अपने हेतु के घोर विरोधी के साथ भी करते थे: चाहे वे उच्च अंग्रेज अफसर और राज पुरुष हो; सावरकर हो या जवाहरलाल नेहरू।

विरोधी से भी प्रेमरूप अहिंसा का अर्थ हेतु की सहमति नहीं हुआ करता। गांधीजी के जीवन कार्य से ऐक्य, साम्यता या पूरकता किसी व्यक्ति या पक्ष से उनके प्रेम युक्त व्यवहार से सिद्ध नहीं होते। सिद्धांत के निरूपण के बिना व्यवहार का रूप सैद्धान्तिक सहमति या असहमति का प्रमाण नहीं बनता। प्रश्न सैद्धांतिक भूमिका से दृष्टिपात का  है, व्यक्तिगत रागद्वेष के तथ्यों का नहीं। गांधीजी द्वारा नेहरू जी को उनकी “अनुसाशनहीनता” पर आगाह करते हुए यह कहने पर कि “तुम गुंडों और बदमाशों को शह दे रहे हो” और तुम्हें अनुशासन का ख्याल नहीं है”, कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान कम नहीं हो जाता, तो गीता प्रेस द्वारा किसी विषय पर विवेक में नहीं उतरने वाली बात कह देने से उनका कुल व्यापक योगदान कैसे ख़ारिज किया जा सकता है?

गांधीजी की दृष्टि और कार्य की यह केंद्रीय मान्यता स्वीकार्य होती है, कि समस्त समस्याओं की जड़ में आत्मबोधहीनता है; आत्मबोध के केंद्र में हमारा सभ्यता-बोध है और भारत का सभ्यता-बोध शाश्वत जीवन सिद्धांतो और चराचर जगत के ऐक्य की दृष्टि का जीवनमें निरूपण करते सनातन हिन्दू धर्म-बोध के बिना शून्य है, तो गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देने के औचित्य पर कोई प्रश्न नहीं होता।

निष्ठा युक्त सभ्यता-बोध के सारे औपचारिक स्रोत, जैसे कि सम्पूर्ण राज्य और समाज व्यवस्था के आर्थिंक, राजनैतिक, सांस्कृतिक – शैक्षिक स्रोत सूखा दिए गए और उसका संज्ञान तक नहीं होने दिया गया, तब केवल  अनौपचारिक, निजी और सामाजिक क्षेत्र में बचे स्रोत के महत्त्व को नहीं समझ सकने के ये सारे परिणाम हैं। भारत की धर्म-चेतना में राम, गीता, रामायण, महाभारत, उपनिषद का कितना केंद्रीय स्थान है, यह आनंद कुमारस्वामी के इस कथन से स्पष्ट है, कि जो रामायण और महाभारत के पात्रों को जानते नहीं हैं, उन्हें भारत का नागरिक कहलाने का अधिकार नहीं।

गांधीजी ने राम नाम को अपने समस्त अस्तित्व, बल, बुद्धि, ज्ञान का स्रोत कहा और गीता को माता कहा, उसका क्या अर्थ होता है? हिन्दू धर्म-चेतना आधुनिकता के आक्रमण के सामने एक मात्र अंतिम शक्ति होने के कारण जहाँ आधुनिकता के पुरोधाओं के लिए हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज प्रहारों का लक्ष्य रहा, वहीं उनसे विपरीत, गांधीजी के लिए सनातन धर्म-चेतना की जागृति केंद्रीय लक्ष्य रहा।

गांधीजी ने धर्म बुद्धि, धर्म व्यवस्था और धर्म व्यवहार में आये दोष का उपाय परम्परा में रह कर खोजा, न कि यूरोप की तरह परम्परा को छोड़ कर। भारतीय सभ्यता के पुनरुत्थान का हेतु स्वराज में लक्षित कर उसे गांधीजी ने रामराज्य कहा। परम्परा के विरुद्ध आधुनिकता के भारतीय नायक जवाहरलाल नेहरूजी ने इसलिए गांधीजी को लिख दिया, कि “रामराज्य न तो कभी इतिहास में अच्छा था, न मैं उसे भारत में वापस देखना चाहता हूँ। हम आपके साथ आपके विचारों के कारण नहीं थे, आप अप्रतिम योद्धा थे, इस लिए हम आपके साथ थे।” उनका अंतिम कहना था, कि गांधीजी के विचार पर चलने से भारत भ्रमित हो जाएगा।

गांधीजी की हत्या एक हिन्दू के द्वारा, हिन्दू धर्म की रक्षा के नाम करने पर नेहरूजी और उनके अनुयायियों को कितनी ख़ुशी हुई होगी, इसका अंदाज लगाया जा सकता है। डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में सनातन हिन्दू धर्म के प्रति उनकी यूरोपीय दृष्टि का पूरा प्रमाण है। हिन्दू धर्म के प्रति वितृष्णा पैदा करने के सारे प्रयासों में नेहरू को गोडसे / सावरकर के हिंदुत्व ने सशक्त हथियार दे दिया। ऐसे हथियार की प्राप्ति की ख़ुशी के अतिरेक में धर्म – चेतना को जीवित रखने के लिए धर्म साहित्य का सबसे बड़ा कार्य करती संस्था का निशाने पर आना सहज स्वाभाविक था।

मूल प्रश्न है: गीता प्रेस का कार्य गांधीजी के जीवन कार्य अर्थात उनके हेतु से सुसंगत है या असंगत। कार्य को चार परिमाणों से जाँचा जाना चाहिए :

१. कार्य की आधारभूत दृष्टि एवं सिद्धांत अर्थात कार्य का उद्देश्य और उसकी वैचारिक / दार्शनिक भूमि

२. कार्य करने वाले कर्ता का उद्देश्य से सुसंगत चरित्र

३. साध्य के लिए साधन

४. साधन के उपयोग की पद्धति या व्यावहारिक रूप

जीवन के सनातन सिद्धांतो के आधार पर भारतीय सभ्यता की परंपरा के पुनरुत्थान के गांधीजी के संघर्ष के तीन मोर्चे  थे:

१.आधुनिकता के सर्वग्राही आक्रमण का सामना : जिसका सर्वाधिक प्रमुख रूप है भारतीय आत्मबोध की जागृति।

२. विदेशी शासन से स्वाधीनता

३. ईसाई धर्मान्तरण को रोकना

इन तीनों द्वारा व्यक्तिगत, सार्वजनिक और राष्ट्रीय जीवन के चारों पक्ष – आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक / धार्मिक और सामाजिक – दमित थे और गांधीजी का सर्वग्राही चिंतन और संघर्ष इन चारों को समेटे हुए था, क्योंकि वे आध्यात्मिक भूमि पर खड़े थे, उनके लिए संस्कृति और धर्म में अंतर नहीं था।

गांधीजी के जीवन कार्य के इन पक्षों में किसके साथ ऐक्य, साम्यता या पूरकता है, यह देखा जाना चाहिए। सबसे प्राथमिक है उद्देश्य और उसे प्राप्त करने के संकल्पधारी का चरित्र और मानसिक वैचारिक भूमि।

इस सन्दर्भ में गांधीजी ने भाषा के प्रश्न को कितना महत्त्व दिया, यह समझना आसान होना चाहिए। आजादी आते ही उन्होंने कह दिया था, कि “दुनिया को कह दो, गांधी को अंग्रेजी नहीं आती” भाषा का प्रश्न महत्त्वपूर्ण इस लिए था, कि भाषा में संस्कृति है और संस्कृति में धर्म। हमारी जीवन दृष्टि, मूल्य, मान्यताएँ, सिद्धांत भाषा में निहित होते हैं। जहाँ अंग्रेजी ने स्थान जमा नहीं लिया है, जहाँ गीता, रामायण, रामचरित मानस, महाभारत, भागवत पुराण पहुंचे है, वहाँ भाषा में संस्कृति बची है, मन और बुद्धि में सनातन जीवन सिद्धांतो के संस्कार और बीज मरे नहीं है, वे “सेक्युलर” हो चूके अंग्रेजी पढ़े लिखों की तरह परम्परा को छोड़े नहीं है। परम्परा से मुक्ति का अर्थ है, मनुष्यता से गिर जाना।

गांधीजी के सन्दर्भ में गीता प्रेस के कार्य को गहरे अर्थ में भारतीय सभ्यता की परम्परा की पुनः प्रतिष्ठा के लिए  आत्म-बोध की जागृति में महत्त्वपूर्ण योगदान का माना जायेगा। इस में गांधीजी के सांस्कृतिक – धार्मिक – शैक्षिक क्षेत्र के कार्य से पूरकता है और उसके अनुकूल शुद्ध साधन और पद्धति अपनाने का परिणाम है, कि गीता प्रेस आज कहाँ पहुंचा है। मूल रूप से यह कार्य भारतीय ज्ञान परम्परा के आधारभूत पक्ष के शिक्षण का है।

भाषा जिस विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि से पोषित होती है, उसीके तत्त्वदर्शन, विचार प्रणाली और अवधारणाओं की वह वाहक होती है और उसीको सम्प्रेषित करती है। भारत में अंग्रेजी यूरोपीय भौतिकवादी और भोगवादी – ‘सेक्युलर’ – ज्ञान-परम्परा और जीवनदृष्टि को भारत में स्थापित करने हेतु लायी गयी थी, ताकि भारत स्वयं को भूल जाए और हमेशा के लिए पश्चिम के नियंत्रण में, उन पर निर्भर बना रहे। जिसकी जीवनदृष्टि उठाते हैं, उन्हीं पर निर्भर भी रहते हैं। इसीको देखते हुए गांधीजी को कहना पड़ा, कि “नकलची बंदरों से राष्ट्र नहीं बनता।”  

जिन्हें जीवन में सनातन सिद्धांतो की दरकार है; जो अपने स्वत्त्व को, अपने आत्मबोध को खोये हुए नहीं है और खोना नहीं चाहते हैं, जो अपने स्वत्त्व को अपने अस्तित्व में स्थापित देखना चाहते हैं; जिन्हें धर्म की दरकार है, जिनके लिए अपने धर्मशास्त्र प्रमाणभूत हैं, आर्ष सत्य और आर्ष वाक्यों को जिन्होंने “साइंटिफिक टेम्पर” के चक्कर में नकार नहीं दिया है, अपनी परम्परा का जिन्हें मूल्य है; उनके मन की बात धर्म ग्रंथों में है, पुराणों में है। ये वही मन की बात है, जिसके विषय में जब गांधीजी को पूछा गया, कि आपने क्या कर दिया कि सोया हुआ भारत जाग उठा, तो उन्होंने कहा: “मैंने उनके मन की बात कह दी, जो वे कहना चाहते थे, लेकिन कह नहीं पाते थे।”

गीता प्रेस ने इस बात के मर्म को ज़िंदा रखने का अति महत्त्वपूर्ण कार्य अप्रतिम तरीके से और हेतु के अनुकूल साधन शुद्धि के गांधीजी के नियम का कठोर पालन सहजता से कर के किया है।

अंत में दो बात:

१. हनुमान प्रसाद पोद्दार द्वारा भारतरत्न अस्वीकार करना आध्यात्मिक मार्ग के पथिक होने का प्रमाण है।

२. अभी तक यह पुरस्कार उन विदेशियों को दिया गया, जिन्होंने प्रतिकार के क्षेत्र में साधन रूप अहिंसा का प्रयोग किया। भारत के अपने सनातन हेतु, जिसके लिए गांधीजी जिए और गोली खाई, उसके लिए यह शायद प्रथम बार है, कि किसी योग्य का सम्मान किया गया; जिसमें भारत की सनातनता का, धर्म विरोधी नहीं हुए  भारत के सामान्य लोगों का, उस सनातन धर्मी भारत का सम्मान है, जो “सेक्युलरिज़म” से विपरीत, सभी धर्म मतों में सत्य की संभावना को स्वीकार करने की शिक्षा देता है।

श्री राजीव वोरा जी के द्वारा फेसबुक पर पूर्वप्रकाशित


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