संस्कारों द्वारा पोषित हमारी अपनी सामाजिक (अर्थ) व्यवस्था (भाग २/३)

भाग १ पढ़ने के लिए यहाँ click करें।

कारीगरों को इसी तरह का एक और पक्का मार्केट देने के उद्देश्य से समाज में 49 संस्कारों वाली एक अनूठी अर्थव्यवस्था लागू की गई थी। इन सभी 49 संस्कारों में हर कारीगर की, एक से लेकर पाँच (बिना जरूरत की) चीजें खरीदने की व्यवस्था की गई थी (जैसा कि हम आगे अलग-अलग संस्कारों के उदाहरणों में देखेंगे)।

इस पूरी व्यवस्था के माध्यम से समाज में बिना जरूरत की चीजों का एक बहुत बड़ा बाजार पैदा किया गया था। उपर से, इन सारी चीजों की कोई कीमत तय नहीं थीं। इन सारी चीजों के लिए उनका मान करना होता था औैर यह बाजार, जरूरत की चीजों से भी बड़ा बाजार था। इन सारे संस्कारों में लगने वाली वस्तुएँ हमारे दैनिक जीवन में जरूरी न होते हुए भी केवल कारीगरों को बाजार प्रदान करने के उद्देश्य से ही समाज में लागू की गईं हैं, अन्यथा इन सब वस्तुओं और इन सब संस्कारों के बिना भी हमारा जीवन सुचारू रूप से चलता ही है।

भारत के अलावा अन्य देशों में रह रहे लोग, इन सारे संस्कारों को न मनाते हुए भी, इन सारी बिना-जरूरत की वस्तुओं का इस्तेमाल न करते हुए भी आसानी से ही जीते हैं। उन सब के द्वारा ये सारे संस्कार न मनाने से उन पर कोई आफत नहीं आ जाती है। बिना इन संस्कारों को मनाते हुए भी वे सब आराम से ही जीते हैं।

समाज में कारीगरों को भरपूर बाजार उपलब्ध कराने के साथ-साथ, समाज में सभी तरह के कारीगरों को सुचारू रूप से व्यवस्थित कर लेने के अनूठे उद्देश्य के साथ, जिससे समाज में एक-एक टैक्नोलॉजी, एक-एक विज्ञान, एक-एक कौशल, एक-एक दक्षता को संरक्षित करके रखा जा सके, इन संस्कारों वाली व्यवस्था को समाज में लागू किया गया था।

आजकल इन उच्च उद्देश्यों से अनजान रहकर, मात्र परम्पराओं को ढोने के लिए, हम इन संस्कारों का आयोजन करते हैं। इन उद्देश्यों से अनजान रहने के कारण, इन संस्कारों को ढोने के क्रम में, इन संस्कारों में हम कारखानों से बनी वस्तुएँ इस्तेमाल करके उल्टे कारीगरों का इतने वर्षों का बाजार बड़ी आसानी से तोड़ ही रहे हैं।

कारीगरों को भरपूर काम देने के उद्देश्य से बनी व्यवस्था, हमारी अनभिज्ञता और हमारी नज़रअंदाजी के कारण आज उसके ठीक उल्टे, कारीगरों से काम छीनने का काम कर रही है।

समाज में संस्कारों के माध्यम से बनी अर्थव्यवस्था का इतना महत्त्व था कि हमारे यहाँ संन्यास ग्रहण करते समय संन्यासियों को भी सभी कारीगरों से क्षमायाचना करनी पड़ती थी। हमारे यहाँ जब कोई संन्यासी बनता है, संन्यास धर्म की दीक्षा लेता है, तो उसकी भी अपनी पूरी एक पद्धति होती थी।

आजकल तो पता नहीं, इस तरह का कुछ होता है, या नहीं, मगर पहले लोग बकायदा इन पद्धतियों का पालन किया करते थे। पहले जब किसीको संन्यासी बनना होता था, तब उसे संन्यास लेने के पहले सारे कारीगरों के घर जाकर उनको बुलावा देना पड़ता था कि आओ भई! मैं संन्यास ले रहा हूँ, तुम सभी लोगों को आना है। भंगी को बुलावा देने के लिए तो बकायदा सोने का सूप और सोने का झाड़ू लेकर जाना पड़ता था।

ये सारे लोग जब इकठ्ठा होते थे, तो उन सभी से क्षमा याचना करनी पड़ती थी, कि मैं तो संन्यास ले रहा हूँ। मेरी वजह से तुम्हारा बहुत बड़ा नुकसान होने वाला है, क्योंकि मैं अगर गृहस्थ जीवन जीता, तो जिंदगी भर तुम्हारी चीजों का इस्तेमाल करता रहता। अब चूंकि मैं संन्यास ले रहा हूँ, इसीलिए, मेरा तुम्हारा रिश्ता अब खत्म होता है और जो ये नुकसान तम सभी को होने वाला है, उस नुकसान के लिए मुझको क्षमा करो।

उसके माफी मांगने के बाद, ये सारे लोग उसको आशीर्वाद देते हैं, कि तू अपने लिए जी ले! अपने लिए मोक्ष प्राप्त कर ले या और जो कुछ करना है, वह कर ले। इसके बाद, हर एक कारीगर, अपने पास की एक-एक चीज उसको देता था। बांस का काम करने वाला उसको एक डंडा देता है। बढ़ई पादुका देता है। जुलाहा कौपीन देता है। दर्जी एक झोली देता है। खासार एक लोटा या कमंडल देता है। चर्मकार मृगचर्म देता है। इस तरह से, हर एक कारीगर अपने-अपने हाथ की एक-एक चीज उसको देता और आशीर्वाद देकर चले जाता है।

अर्थव्यवस्था वाले पहलू को समाज में कितनी बारीकी और कितनी सूक्ष्मता से लागू किया गया था, यह समाज में संन्यास लेने वाली प्रक्रिया से मालूम होता है। समाज में अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा कर लिए गये संन्यास जैसे कार्य को भी इतना उच्च नहीं माना गया है, कि उसे ऐसा करते समय किसी से क्षमा याचना की जरूरत न पड़े।

गुरूजी तो आजकल लोगों से बोलते हैं, कि आजकल हमको भी बच्चों को स्कूल भेजने वाले दिन इस तरह का एक कार्यक्रम कर लेना चाहिए। उस दिन सभी कारीगरों को बुलवा कर, बच्चों से क्षमायाचना करवा लेनी चाहिए कि आज से मैं जिस तरह की पढ़ाइयाँ पढ़ने जा रहा हूं, उन पढ़ाइयों को पढ़ते ही मैं न केवल तुम्हारी बनाई सारी चीजों का इस्तेमाल करना बंद करता चला जाऊंगा, बल्कि तुमको गरीब, अनपढ़ आदि भला-बुरा कह कर तुम्हारा अपमान भी करूंगा। आजकल की सारी पढ़ाइयाँ, आखिर में इन सब को बुरा साबित करके नौकरी करने को ही तो उत्तम साबित करते चलती हैं।

(क्रमशः)


Posted

in

,

by

Tags:

Comments

One response to “संस्कारों द्वारा पोषित हमारी अपनी सामाजिक (अर्थ) व्यवस्था (भाग २/३)”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.