आज से पच्चीस साल पहले देश के किसी भी क्षेत्र के अंदरूनी इलाकों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है, फिर तो महाराष्ट्र के अमरावती जिले का आदिवासी बहुल मेलघाट क्षेत्र गरीबी और बच्चों के कुपोषण के लिए कुख्यात था । बिजली, पानी, पहुँच मार्ग, संचार, आदि की इतनी कठिन परिस्थितियों के बावजूद वे न केवल वहीं टिके रहे, बल्कि वहाँ रहते हुये और वहाँ की परिस्थिति को समझते हुये देश के शीर्ष स्तर तक पर नीति-निर्माण में सटीक सहयोग देते रहे। लवादा में उन्होंने ‘सम्पूर्ण बाम्बू केन्द्र’ नाम से एक संस्था स्थापित की और उसके माध्यम से मेलघाट की समस्याओं की तरफ ध्यान न देकर उनके ‘सामर्थ्य’ को बढ़ाने की बात की। कई वर्षों तक इसके माध्यम से कार्य करने के बाद, अपने कार्य को विस्तार देने के लिए, आज से लगभग 7 वर्ष पूर्व, मेलघाट के ही एक अन्य गाँव कोठा में ‘ग्राम ज्ञानपीठ’ की स्थापना की। ग्राम ज्ञानपीठ का मुख्य उद्देश्य समाज में ‘कारीगरी-आधारित जीवनशैली’ की पुनर्स्थापना है। इसके अन्तर्गत आज 7-8 विभिन्न कारीगरी विधाओं के गुरुकुल संचालित हो रहे हैं। इसके अलावा, इसके अन्तर्गत उन्होंने सिपना शोध यात्रा, फगुआ महोत्सव, घुँघरू बाजार, जैसे कार्यक्रम भी स्थापित किये, जिसके माध्यम से समाज में कारीगरी-आधारित जीवन शैली का निरन्तर प्रचार होता रहा।
सुनील जी के कर्मक्षेत्र का एक अन्य प्रमुख हिस्सा ‘राष्ट्रीय कारीगर पंचायत’ भी रहा है। राष्ट्रीय कारीगर पंचायत के माध्यम से देशभर में कारीगरों के साथ उनके सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक उत्थान के लिए वे निरन्तर सक्रिय रहे। देश के विभिन्न स्थलों पर राष्ट्रीय कारीगर पंचायत, कारीगर हुनर खोज यात्रायें, शास्त्री-मिस्त्री कार्यशालायें, उनके नेतृत्व में लगातार आयोजित होती रहीं। कारीगरों के हिसाब की नीति-निर्धारण के लिए जरूरी क्रिटिकल मास तैयार करने की दृष्टि से ये सभी गतिविधियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। लगभग पाँच वर्ष पूर्व श्री रवीन्द्र शर्मा गुरुजी के बाद से वे ही इसके मुखिया थे। दो-तीन वर्ष पूर्व राष्ट्रीय कारीगर पंचायत के माध्यम से देश भर में कारीगर हुनर खोज का अभूतपूर्व कार्य हुआ था, जो कि उनकी दूरगामी सोच, और विभिन्न स्तर के लोगों के साथ बराबरी से सामंजस्य स्थापित कर पाने के उनके कार्य-कौशल के कारण ही सम्भव हो पाया था। पिछले कुछ वर्षों से वे देश में कारीगरी क्षेत्र के विस्तार, संभावना और आजादी के बाद से लगातार हुई उपेक्षा को देखते हुये एक स्वतंत्र ‘कारीगर मंत्रालय’ बनाए जाने की दिशा में सक्रिय थे, जो अपने आप में उनकी दूरदर्शिता प्रदर्शित करता है।
जीवन में व्यक्ति बहुत सारे लोगों से बहुत कुछ सीखता है। सुनील जी ने भी बहुत सारे लोगों से बहुत कुछ सीखा और उस सीख को अपने जीवन में उतारा। पर फिर भी जिन कुछ लोगों का उनके जीवन में विशेष प्रभाव था, उनमें श्री वीनू काले जी, श्री नाना जी देशमुख और श्री रवीन्द्र शर्मा, गुरुजी प्रमुख हैं।
वीनू काले जी से उन्होंने बाँस को पकड़ा और उसमें हर तरह की टेक्निकल महारत हासिल की। इतनी की वे अपने मित्रों के बीच स्नेह से सुनील ‘बाँस पाण्डे’ और शेष क्षेत्रों में ‘वेणुपुत्र’ के रूप से जाने जाते थे। अभी तीन माह पहले वर्धा विश्वविद्यालय में हुये कार्यक्रम में बाँस से हुई सजावट को देखकर एक मित्र ने उन पर टिप्पणी की कि आज यह स्थिति आ गई है कि बाँस का कहीं भी कोई भी काम हो, उसमें सुनील का ही हाथ नजर आता है । यह सब उनकी बाँस के प्रति सिद्धता और प्रतिबद्धता को दर्शाती है, जो कि उन्हें अपने गुरु श्री वीनू काले जी से है प्राप्त हुआ था।
इसी तरह उन्होंने नाना जी के सम्पर्क में रहकर संस्थागत और संगठनात्मक कामों की बारीकियाँ समझीं। जो की बाद में उनके संस्थागत कामों में बहुत ही मददगार साबित हुईं ।
Leave a Reply