वर्ष 92 से 95 तक पांढरकवड़ा में अपने कार्य के दौरान ही वे पांढरकवड़ा से मात्र 40 किलोमीटर दूर अदिलाबाद के गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी के सम्पर्क में आए। गुरुजी का अदिलाबाद में एक कला-आश्रम है। सुनील जी, गुरुजी से जुडने वाले पहले कुछ लोगों में से एक रहे हैं। गुरुजी का भारतीय समाज व्यवस्था के ऊपर बहुत ही गहन अध्ययन रहा है। एक ऐसी समाज व्यवस्था जिसके मूलाधार में जातियाँ और विशेषकर कारीगर जातियाँ रही हैं। गाँवों में पुष्पित भारतीय संस्कृति, सभ्यता, परम्पराओं, जातियों का परस्पर आपसी सम्बन्ध, कला, सौन्दर्य दृष्टि, आदि कई विषय गुरुजी के अध्ययन विषय रहे हैं। गुरुजी के सम्पर्क में आने के बाद से सुनील जी के कार्य को वैचारिक एवं दार्शनिक आधार मिला। उनके कार्य के दायरा बाँस की टेक्निकल और संदर कलाकृतियों के निर्माण से बढ़कर उसके कारीगरी पक्ष और कारीगरों के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पक्ष की ओर गया। जो फिर और भी आगे बढ़कर बाँस के साथ-साथ अन्य कारीगरी विधाओं की ओर भी गया।
लवादा गाँव में रहकर कारीगरी क्षेत्र में 17-18 वर्ष काम करने के बाद सुनील जी ने वहीं से नजदीक स्थित ग्राम कोठा में ग्राम ज्ञानपीठ को खड़ा करने का संकल्प लिया। कोठा में निर्मित इस ग्राम ज्ञानपीठ का लगभग पूरा का पूरा आधार गुरुजी और उनकी शिक्षाएं ही रही हैं । आज कोठा स्थित ग्राम ज्ञानपीठ में अलग-अलग कारीगरी विधाओं के 7-8 गुरुकुल कार्यरत हैं। इसके पहले सुनील जी के प्रयासों से मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले की बनखेड़ी तहसील में भी एक ग्राम ज्ञानपीठ का शुभारम्भ हो चुका था।
सुनील जी ने तो गुरुजी से बहुत कुछ सीखा ही, पर दूसरी ओर सुनील जी ने गुरुजी के विचारों को अपनी ढंग से आगे बढ़ाने में बहुत ज्यादा कार्य किया। गुरुजी तो एक तरह से दार्शनिक की भूमिका में थे। उनके विचारों को देशभर में पहली बार कार्यरूप में परिणित करने का कार्य सुनील जी ने किया। मूर्त रूप में दिखने के कारण गुरुजी के विचारों को एक अलग तरह की मान्यता मिली। इसके अलावा, गुरुजी कहीं भी आने-जाने के लिए किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर निर्भर थे। ऐसी स्थिति में सुनील जी ही वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने गुरुजी को लेकर यहाँ-वहाँ जाना शुरु किया। उनके विचारों से देश के विभिन्न क्षेत्र के लोगों को परिचित करवाया । गुरुजी को लेकर सुनील जी, नागपूर के अतिरिक्त दिल्ली, भोपाल, मसूरी, बनारस, बीड़, आदि कई जगहों पर गए और उन्हें गुरुजी के विचारों से अवगत करवाया। मध्यप्रदेश में तो बाकायदा दोनों लोगों ने प्रदेश-व्यापी एक माह लम्बी कारीगर हुनर खोज यात्रा भी की थी। मेरा भी यह सौभाग्य था कि ऐसी कई यात्राओं में मैं भी उन दोनों लोगों के साथ था। यह सुनील जी का शुरुआती प्रयास ही था कि लोगों के बीच गुरुजी और उनकी बातचीत को सुनने की ललक निरन्तर बढ़ती चली गई।
Leave a Reply