पिछली दो ढाई शताब्दियों से भारत का साधारण मनुष्य बड़े ही असमंजस से गुजर रहा है। एक ओर उसके संस्कार व उसकी परवरिश है, जो उसे ईश्वर में, सत्य में, धर्म में आस्था रखना सिखाते हैं, काल की चक्रियता को सिखाते हैं, बुरे वक्त में एक दूसरे के काम आना सिखाते हैं, कर भला तो हो भला सिखाते हैं, नेकी कर और दरिया में ड़ाल सिखाते हैं, अपनी पहचान को छोड़ देना सिखाते हैं, सार्वजनिक कल्याण हेतु व्यक्तिगत त्याग और बलिदान सिखाते हैं, सामाजिकता में ही आनंद की अनुभूति कराते हैं; तो दूसरी ओर पूरा आधुनिक तंत्रविस्तार है जो तर्क के नाम पर आस्था से जुड़ी लगभग हरेक बात को अंधविश्वास साबित करने के उपर तुला हुआ है, समय की रेखीय संकल्पना को ही सत्य मान भी रहा है और थोप भी रहा है, सहयोग छोड़कर प्रतिस्पर्धा सिखाता है, किसीको पीछे छोड़कर कैसे आगे बढ़ना है – यह सिखाता है, अपनी पहचान बनाना सिखाता है, समाज की परवाह किए बिना व्यक्तिवादिता को बढ़ावा देता है, इन्सान को इन्सान से काटता है और साधनों से ही आनंद पाने के लिए बाध्य करता है। इस द्वंद्व से हम सबका रोजाना सामना होता है।
परंपरा के प्रति साधारण भारतीय मजबूत किन्तु दिनप्रतिदिन क्षीण होती चली जा रही श्रद्धा से देखता है, तो आधुनिकता के प्रति विवशता से देखता है। वह ना तो यहाँ का रह पाया है, ना तो वहाँ का बन पाया है। यह त्रिशंकु सी स्थिति दो मूलत: भिन्न अवधारणाओं वाली मान्यताओं के टकराव से उत्पन्न हुई। अंग्रेजों का मानस, उनके सिद्धान्त, उनकी मान्यताएँ, उनके दृष्टिकोण सबकुछ हमसे भिन्न था और कई मायनों में विपरीत भी, जिसके फलस्वरूप भारत की विभिन्न व्यवस्थाएँ पिछली दो ढाई शताब्दियों में अनेकानेक परिवर्तनों से गुजरी हैं और लगातार भारत को अपनी जड़ों से काटने के लिए प्रयत्नशील रही हैं।
यूरोपीय उपनिवेशवाद ने लगभग लगभग सभी वैश्विक संस्कृतियों का नाश कर दिया है, या तो उन्हें हांशिये में धकेल दिया है। भारत ने अपवादस्वरूप आज भी अपने अतीत से नाता जोड़े रखा है और परंपरा की निरंतरता को बनाए रखा है। यह भारतीय सुदृढ़ व्यवस्थाओं का लोहा ही माना जाए कि आज भी भारत अपनी जड़ों से पूर्णत: कटा नहीं है और साथ ही औपनिवेशिक काल की क्षतियों में से भी सीख ली जाए।
श्रद्धेय श्री धर्मपाल जी ने हमारी स्मृतियों को पुनर्जीवित करने हेतु एवं हमें अपने अतीत की निरंतरता से और भी मजबूती से जोड़ने हेतु अथाह परिश्रम करके अंग्रेजों के द्वारा लिखे गए दस्तावेजों को इंग्लेंड के भिन्न भिन्न अभिलेखागारों से खोज खोजकर १८ वीं शताब्दि के भारत का चित्र खड़ा किया है, जो दस पुस्तकों की ग्रंथमाला के स्वरूप में हमारे सामने उपलब्ध है। धर्मपाल जी के शोधकार्य से परिचित ना होना इतिहास के किसी भी शोधार्थी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। केवल इतिहास के शोधार्थी ही क्यों, भारतीय मानस को समझने की इच्छा रखने वाले, सामाजिक सरोकार रखने वाले, भारत और भारतीयता से प्रेम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए धर्मपाल जी का साहित्य पढ़ना एक खजाने को पा लेने जैसी सुखद घटना होगा।
धर्मपाल जी आज दैहिक रूप में तो हमारे बीच नहीं है, किन्तु हमारा सौभाग्य है कि हमारे कई साथी – मित्र ना केवल धर्मपाल जी के कार्य से भली भाँति परिचित हैं, अपितु उनके साथ कई वर्षों तक रहे भी हैं और धर्मपाल जी उनके लिए गुरुतुल्य रहे भी हैं। ऐसे ही कुछ लेखकों के द्वारा सार्थक संवाद के पाठकों को धर्मपाल जी के साहित्य से परिचित कराने हेतु धर्मपाल साहित्य परिचय नामक शृंखला का आरंभ किया जा रहा है, जिसकी भिन्न भिन्न कड़ियों में धर्मपाल जी की विभिन्न पुस्तकों का परिचय कराया जाएगा।
आज धर्मपाल जी की चौदहवीं पुण्यतिथि है। इस अवसर पर धर्मपाल साहित्य परिचय को आपके सामने प्रस्तुत करते हुए हम उन्हें सादर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और आशा करते हैं कि धर्मपाल जी के साहित्य के द्वारा हम अपने भविष्य का दिशानिर्धारण कर पाएंगे।
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