आधुनिकता – गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी की दृष्टि से (४/५)

आधुनिकता का एक और बहुत बड़ा दुष्परिणाम समाज में ‘नौकरशाही’ का फैलाव है। आज भारत में शायद ही ऐसे घर होंगे, जिनका एक भी सदस्य किसी न किसी जगह पर नौकरी न करता हो। कहाँ जहाँ भारत में ‘उत्तम खेती, मध्यम व्यापार और निकृष्ट चाकरी’ का सिद्धांत था, आधुनिक व्यवस्था में इसका एकदम उल्टा है। नौकरी करना सबसे अच्छी आजीविका माना जा रहा है।

भारतीय व्यवस्था के अंतर्गत कारीगरों के रूप में छोटी-छोटी टेक्नोलॉजी का मालिक आज बड़े-बड़े कारखानों का मज़दूर हो गया है। लोगों को यह जानकर शायद आश्चर्य लगे कि आज से 200 साल पहले तक भारत में मज़दूर और मज़दूरी प्रथा न के बराबर थी। सभी अपना – अपना काम स्वयं ही करते थे।
मज़दूरी के बदले सहयोग का अर्थशास्त्र था। जरूरत पड़ने पर जैसे बुआई, कटाई, गृह निर्माण जैसे कामों में लोग एक – दूसरे का सहयोग करते थे। बहुत से आदिवासी बहुल इलाकों में यह व्यवस्था आज भी देखने को मिल जाती है।
यह सारा कुछ नौकरशाही के कारण ही है, कि आज लगभग पूरा का पूरा समाज संचार जाति वाला होता जा रहा है, जिसके अपने स्वयं के ढेरों दुष्परिणाम हैं। नौकरशाही के कारण ही आज समाज ‘कुटुंब से परिवार’ और ‘परिवार से व्यक्ति’ तक सीमित होता जा रहा है। यह नौकरशाही का ही नतीजा है, कि हमारी पीढ़ियों का विज्ञान, पीढ़ियों की विद्याएँ एक झटके में ही नष्ट होती जा रही हैं, अन्यथा हमारे दैनिक जीवन के छोटे – छोटे कामों में पीढ़ियों का अनुभव रहा करता था।
लोगों के संचार जाति वाले बन जाने से, घरों में ही प्रसव कराने और प्रसव पश्चात बच्चे की देखभाल जैसे अनुभव और ज्ञान तो बहुत दूर की बात है, मामूली सर्दी – खांसी में घर में भोजन में क्या बनना चाहिए, किन – किन चीजों से परहेज करना चाहिए, जैसे नुस्खे भी बहुत गूढ़ विद्या से होते जा रहे हैं। नौकरशाही हमारे ज्ञान, विज्ञान के पीढ़ियों के भंडार को बहुत तेजी से नष्ट कर रही है।
नौकरशाही का एक और पक्ष भी है। इसके चंगुल में रहते-रहते व्यक्ति न केवल काम के लिए नौकर हो जाता है, बल्कि धीरे – धीरे उसका मन भी एक तरह की गुलामी में रहने का आदी हो जाता है। वह बहुत सारे मायनों में परतंत्र और पराश्रित होता जाता है।
समाज में ‘बेरोजगारी’ शब्द और बेरोजगारी की समस्या दोनों ही आधुनिकता की ही देन है। इसके पहले समाज में कम से कम भारतीय समाज में न तो ये शब्द ही था और न ही ऐसी कोई समस्या ही थी। भारतीय समाज छोटी टेक्नोलॉजी वाला समाज रहा है और जब टेक्नोलॉजी छोटी थी, तो लोग अपने जातिगत काम धंधे ही कर सकते थे। अपने जातिगत कामों के अलावा, कोई भी व्यक्ति किसी और कार्य पर अपनी आजीविका नहीं चला सकता था।
व्यक्ति कोई भी काम सीख सकता था और उस काम को शौकिया तौर पर कर भी सकता था, मगर उसकी आजीविका उस काम पर आश्रित नहीं हो सकती थी। छोटी टेक्नोलॉजी और जातिगत काम धंधों की कड़ी पाबंदी के माध्यम से सबका रोज़गार और आहार पूरी तरह सुरक्षित रखा गया था। समाज में हर किसी के पास अपना काम था।
आधुनिक व्यवस्था में एक तो टेक्नोलॉजी के बड़ी हो जाने के कारण और दूसरा हर किसी को कोई भी रोजगार अपनाने की स्वतंत्रता मिलने के कारण, बेरोजगारी की विकराल समस्या पैदा हो गई है। समाज में बड़ी टेक्नोलॉजी आ जाने के कारण ढेरों लोगों का रोजगार एकदम से समाप्त ही हो गया है।
पुराने काम-धंधों का मार्केट खत्म होने के कारण, लोगों का पुराना काम चौपट हुआ और नए काम-धंधों में, नए कारखानों में इतने ज्यादा लोगों को व्यस्थित नहीं कर पाने के कारण ये लोग यहाँ भी बिना काम के ही रहे।
पहले जब लोगों के काम-धंधे जाति अनुसार बंधे हुए थे, तब उनके गांव और घर भी बंधे हुए ही थे। लोग अपना सामान अपने बंधे हुए घरों में ही दे (बेच) सकते थे। इस तरह की पद्धति में कोई एकाध व्यक्ति बहुत कुशल न भी हो, तो भी उसको अपनी आजीविका चलाने में कोई दिक्कत नहीं आती थी।
इसके विपरीत, आजकी आधुनिक व्यवस्था में कोई भी, कहीं भी, कोई भी धंधा-पानी कर सकता है। हर कोई किसी दूसरे का व्यवसाय / धंधा / रोजगार बिना किसी रोक-टोक के, बिना किसी अपराध बोध के अपना सकता है, हथिया सकता है। इसी तरह कोई भी, कहीं भी, किसी को भी अपना सामान नहीं बेच सकता था, जबकि आज पूरा का पूरा मार्केट खुला है। कोई भी, कहीं भी, किसी को भी अपना सामान बेचने के लिए स्वतंत्र है।
रोज़गार की और उसके साथ-साथ मार्केट की स्वतंत्रता होने के बाद से बड़े-से-बड़े अरबपतियों को भी अपने-अपने रोज़गार, धंधे-पानी को लेकर एक अजीब तरह की असुरक्षा है। एक रिक्षे वाले, ऑटो वाले, किराने वाले से लेकर रिलायंस, बज़ाज जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिकों तक को अपने रोज़गार की, अपनी आजीविका की, अपने मार्केट की पूर्ण सुरक्षा नहीं है।
कभी भी, कोई भी, सामने वाला एक रिक्षा खरीद कर, ऑटो खरीद कर, एक दुकान डालकर, एक कंपनी खोलकर इनके रोज़गार, इनकी आजीविका, इनके मार्केट को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है, इनको बेरोजगार बना सकता है।
आधुनिकता का एक और दुष्परिणाम समाज में आया ‘कमीशन बाज़ी’ का रोग है। जब टेक्नोलॉजी छोटी होती है और उसका मार्केट, उसके गांव, घर बंधे होते हैं, तो उसमें माल बेचने के लिए बिचौलिये की जरूरत नहीं होती है। इसके विपरीत बड़ी टेक्नोलॉजी वाली आधुनिक व्यवस्था में बिना बिचौलिए के माल बेचा ही नहीं जा सकता है और वहीं से ‘कमीशन बाज़ी’ का सारा खेल शुरू हो जाता है।
आज पूरा का पूरा समाज ‘कमीशन बाज़ी’ के रोग से ग्रस्त है। कारखानों के उत्पादों को बेचने से शुरू हुआ यह रोग, आज समाज के हर क्षेत्र – शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्माण, कला, बैंकिंग, राजनीति, मीडिया, सरकारी काम, प्राईवेट काम – हर सारे क्षेत्रों में बहुत ही गहरे तक पैठ चुका है। आज तो इसके बिना किसी भी क्षेत्र में किसी भी काम की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है, जबकि समाज में इसकी शुरूआत टेक्नोलॉजी के मात्र बड़े हो जाने से हुई है।
भारतीय समाज ने बड़ी चतुराई से इस बुराई को दूर रखने के लिए समाज में छोटी टेक्नोलॉजी वाली व्यवस्था को अपना रखा था।

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