प्रस्तुत है एक भारत ऐसा भी का द्वितीय अंक, एक ऐसी कहानी, जो आपको सोचने पर विवश कर देगी। कहानी यहाँ लिखकर आपका मजा किरकिरा नहीं करेंगे, लेकिन कहानी सुनने के बाद नीचे जो लिखा है, उसे जरूर पढिए।
आजकल सरकारों के द्वारा कितनी ही योजनाएँ बनाई जाती हैं, जिससे गरीबों की सहायता हो सके, वृद्धों की सहायता हो सके, विकलांगों की सहायता हो सके और ऐसी योजनाओं से कुछ हद तक इनकी सहायता होती भी है, लेकिन इन सबके नाम पर हो रहे भ्रष्टाचार और ये सब के पीछे लगने वाले administrative efforts को देखा जाए, तो समझ में आएगा कि ये तो पूरे समाज के लिए घाटे का सौदा है। कहीं न कहीं विश्वभर में Welfare State जैसे ध्येयों को सिद्ध करने के लिए ऐसे ही प्रयास १९ – २० के फर्क के साथ देखे जा सकते हैं।
वर्तमान प्रयासों में सबकुछ सरकार के द्वारा, कानून के द्वारा, लिखित व्यवस्था के द्वारा, लिखित दंडविधान के द्वारा किया जाता है। यदि भारतीय संदर्भ में देखा जाए, तो इन विषयों में राजा व राज्य के विशेष हस्तक्षेप की कोई जरूरत नहीं होती थी, ना ही कोई लिखित कानून की। हमारे समाज में अन्न, दूध, न्याय, चिकित्सा व शिक्षा को सबकी मौलिक आवश्यकता (ध्यान रहे, यह rights और responsibilities की dualities से भी उपर की बात है) समझकर इन क्षेत्रों में व्यापार को ही निषिद्ध कर दिया गया था। यह सब सबको सरलता से उपलब्ध हो, ऐसी व्यवस्थाएँ कायम करना समाज का ध्येय रहता था और काफी हद तक इन्हें सिद्ध कर भी लिया गया था और ये सब समाज के द्वारा होता था, शासन के द्वारा नहीं और बिना किसी लिखित कानून के।
यहाँ रोचक बात ये है कि इनका व्यापार ना होने पर भी ये सेवाएँ प्रदान करने वाले लोगों (किसान, गोपालक, न्यायकर्ता, शिक्षक और वैद्य) को कभी किसी आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़ता था।
हम कदापि नहीं कह रहे कि वह व्यवस्था उसी स्वरूप में आज खड़ी हो सकती है, लेकिन उसका अध्ययन तो हो। आज जब हम सारी समस्याओं के समाधानों के लिए पश्चिम की ओर ही देखने लगे हैं, तो एक बार हमारे गाँवों की तरफ भी तो झाँकें, हो सकता है समाधान वहीं छिपा हो।
इस विषय पर आपकी राय जरूर हमें comment में लिखकर बताइए।
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