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समाज में सामाजिकता को पोषित करना:
49 संस्कारों वाली व्यवस्था को समाज में लागू करने का दूसरा सबसे बड़ा उद्देश्य समाज में सामाजिकता को पोषित करना रहा है। हमारे 49 संस्कार, संस्कार मात्र न होकर मानव जीवन के महत्त्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं। गर्भाधान, वस्त्र धारण, अन्न प्राशन, केश खंडन, चूड़ा कर्म, कर्णछेदन, उपनयन, विद्यारम्भ, विवाह, मृत्यु (अंतिम संस्कार) आदि मानव के जीवन के महत्त्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं।
व्यक्ति के जीवन के इन सभी महत्त्वपूर्ण पड़ावों में समाज की सभी 18 जातियों (जिनको हमारे यहाँ बृहत्तर कुटुंब माना जाता है) के प्रतिनिधियों की उपस्थिति सुनिश्चित कराने के उद्देश्य से इन महत्त्वपूर्ण पड़ावों को संस्कारों के रूप में मनाया गया है, ताकि समाज में कोई भी व्यक्ति कभी अकेलेपन का अनुभव न करे, भले ही उसके परिवार का वह अकेला व्यक्ति ही क्यों न हो। समाज में सामाजिकता को बनाए रखना इन संस्कारों का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रहा है।
यही कारण है, कि हमारे हर संस्कार में समाज की हर जाति का व्यक्ति अपनी एक एक चीज लेकर आता रहा है। हर जाति का एक व्यक्ति, अपनी जाति के प्रतिनिधि के तौर पर खड़ा रहता है। व्यक्ति के अंतिम संस्कार यानि शव संस्कार में भी हर जाति का व्यक्ति अपनी एक चीज लेकर आता है।
‘बंसोड़’ बाँस लाता है। ‘कुम्हार’ मटका लेकर आता है। ‘नाई’ मुंडन करने आता है। ‘सुनार’ पंचरत्न लेकर आता है। ‘हरिजन’ शव को बांधने के लिए वाद्य और रस्सी लाते हैं। जब सुतली नहीं थी, तो एक रस्सी होती थी, जो वह लेकर आता है। कुमकुम-गुलाल बनाने वाला गुलाल लाता है। ‘दर्जी’ शव पर डालने के लिए कपड़े के सिए हुए फूल लाता है। ‘जुलाहा’ कफ़न का कोरा कपड़ा लाता है।
ये सब अपना एक-एक सामान लेकर आते हैं, और व्यक्ति के अंतिम संस्कार होने तक वहीं पर रूके रहते हैं, कि आज अपने (बृहत्तर) कुटुंब का एक आदमी मर गया है। इस तरह से हर जाति का एक प्रतिनिधि वहाँ खड़ा होता है और वह खाली हाथ नहीं, बल्कि अपना सहयोग लेकर खड़ा होता है। वैसे देखा जाए, तो मटके, पंचरत्न, कफ़न, कपड़े के फूल, वाद्य, गुलाल आदि के बिना भी अंतिम संस्कार तो हो ही सकता है।
किन्तु फिर भी बिना जरूरत की इन चीजों की भी समाज में जरूरत बनाई गई, ताकि समाज के सभी 18 तरह के कारीगरों की उपस्थिति सुनिश्चित हो सके। इसीलिए, हमारे हर सारे संस्कारों में हर जाति का प्रतिनिधि अपना सहयोग लेकर उपस्थित रहता हैं और ये सब मिलकर के व्यक्ति के जीवन के उस महत्त्वपूर्ण पड़ाव के साक्षी बनते हैं।
आज जब भी लोग यही अंतिम संस्कार उसी पद्धति से करते हैं, तो लगता है, कि ये अंधविश्वास ही है, क्योंकि कभी ये सारे संस्कार कारीगरों के लिए और समाज में सामाजिकता को बनाए रखने के लिए बने थे, किन्तु आजकल इन संस्कारों में न तो कोई कारीगरों की बनी चीजें इस्तेमाल कर रहा है और न ही इससे किसी तरह की सामाजिकता बढ़ रही है, क्योंकि ये सारी चीजें अब कारखानों में पैदा होकर के बाजा़रों में बिक रही है।
अब इन संस्कारों के द्वारा हम स्वयं ही इन कारखानों वालों से लुट रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें सोचना होगा, कि आखिर इन संस्कारों को मनाना क्यों है और यदि मनाना ही है, तो कारीगरों को फिर से जिंदा करके इनको सही पद्धति से मनाया जाए, या फिर जो कारीगर अभी तक जिंदा है, कम-से-कम उनकी ही चीजों का इस्तेमाल करते हुए ही इन संस्कारों को मनाया जाए।
यदि कारखानों की बनी चीजों को इस्तेमाल करके ही इन संस्कारों को मनाना है, तब तो अच्छा है, कि ना ही मनाया जाए, क्योंकि यदि उसके पीछे के उद्देश्यों की पूर्ति ही न हो, तब भला इन संस्कारों का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है।
कारीगरों के मान की व्यवस्था:
इन दोनों उद्देश्यों के अलावा, इन संस्कारों के माध्यम से एक अन्य उद्देश्य की पूर्ति भी होती रही है। ‘आहार की सुरक्षा और गौरव की व्यवस्था’ वाले मानस के चलते, हमारे यहाँ कारीगरों के मान की उत्तम व्यवस्था रही है।
बच्चे के पैदा होने से लेकर, उसके मरने तक, सभी 18 तरह के कारीगरों के लिए हर घर से 12 बार नेग देने की व्यवस्था होती है, जिसमें कारीगरों का मान होता है। यही कारण है, कि विभिन्न संस्कारों में लगने वाली कारीगरों की इन सारी चीजों की कोई कीमत तय नहीं होती। इन सारी चीजों के लिए उनका ‘मान’ करना होता था, जो कि हर घर अपनी क्षमता के अनुसार करता है।
कई संस्कारों में कारीगरों का सामान लेने के लिए बाजे-गाजे के साथ उनके घर जाना होता है और उनका, उनकी टेक्नोलॉजी आदि का मान करके उनकी बनाई हुई चीजें लाई जाती हैं, जैसे विवाह संस्कार के समय कुम्हार के घर जाकर, उनके चाक की पूजा करके, कुम्हार का मान करके, उसके घर से मिट्टी और कुछ मटके लाये जाते है।
इसी तरह, कई अन्य संस्कारों में, वे स्वयं अपना सामान लेकर लोगों के घरों में आते हैं और वहाँ उनका मान किया जाता है। जैसेकि, आज से लगभग 20-30 साल पहले तक, गांव में जब भी किसी के घर बच्चा पैदा होता था, तो हर जाति की एक प्रतिनिधि औरत वहां खड़ी रहती थी।
‘कुम्हारनी’ एक मिट्टी का गड़वा लेकर आती थी। बाँस का काम करने वाली औरत एक सूप लाती थी। ‘नाई की औरत’ आया बनती थी। नाभि की नाल काटने के लिए एक ‘लखेरन’ औरत आती थी। बच्चे का मुँह साफ करने के लिए ‘भंगन’ आती थी। बच्चे का मुँह साफ करने का अधिकार गांव की भंगन को ही था। बच्चे के पैदा होने पर बच्चे का मुँह वही साफ करती है। ‘तेली की औरत’ एक विशेष तरह का तेल लेकर आती थी। इस तरह से हर जाति की एक प्रतिनिधि औरत वहाँ खड़ी होती थी और ये सब मिलकर उस बच्चे को पैदा करते थे।
उस समय तक बच्चा घरों में ही पैदा होता था। यह सब एक पूरी व्यवस्था थी। बच्चा पैदा होते ही उसको एक सूप में डाला जाता था और फिर बाकी सारे कार्यक्रम उसी हिसाब से होते रहते थे। उसकी नाल काटनी होती है, उसको साफ करना होता है, उसका मुँहह साफ करना होता है, मिट्टी के गड़वे में अंगार डालकर जड़ी-बुटियों का धुंआ उसको दिया जाता है, तेल लगाया जाता है, ये सब काम एक के बाद एक चलते रहते हैं।
उस दौरान हर जाति की एक प्रतिनिधि औरत वहाँ अपना सहयोग लेकर खड़ी रहती है। उसके बदले इन सबका मान करना होता है। इस तरह से ये सारे संस्कार समाज में सामाजिकता को बढ़ाने के साथ-साथ, समाज की विभिन्न जाति के लोगों के मान करने के अवसर भी रहे हैं।
घर के नए सदस्य का समाज से परिचय कराने की पद्धतिः
समाज के ये संस्कार, घर में पैदा हुए नए बच्चे का समाज के विभिन्न लोगों से विशेष परिचय कराने के अवसर भी रहे हैं – केश-खण्डन कार्यक्रम में ‘नाई’ से परिचय, कर्ण-छेदन में ‘सुनार’ से परिचय, उपनयन में ‘गुरु’ से परिचय, विद्यारम्भ में ‘शिक्षक’ से परिचय, वस्त्र धारण में ‘दर्जी’ से परिचय, अन्नप्राशन में ‘धोबी’ से परिचय इत्यादि। और इसी तरह से कई संस्कार घर की नई बहु का समाज के विभिन्न लोगों से विशेष परिचय कराने के अवसर भी रहे हैं।
इतनी सारी विशेषताओं सहित, समाज में 49 संस्कारों वाली व्यवस्था को उसके अपने मूल रूप में समझना एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण काम है। यही कारण है, कि संस्कारों से ही हमारे समाज में समृद्धि आती है और यही कारण है कि संस्कारहीन समाज दरिद्र कहलाता है।
(गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी के साथ के संवाद से प्रेरित)
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