१. सृजन महोत्सव
बहुत वर्ष पहले की बात है। बैसाख महीना था। उस आग बरसाती गरमी में श्री नंदलाल बोस शांतिनिकेतन से बड़ौदा आये थे। साथ में उनके शिष्य कलाकारों का समुदाय था। सयाजीराव महाराज के कीर्तिमंदिर की पूर्व की दीवार पर भित्तिचित्र का निर्माण करना था। कीर्तिमंदिर के पिछवाड़े एक छोटे से कमरे में वे ठहरे हुए थे।
हमें मालूम हुआ उसके दूसरे रोज डाक्टर मुस्तफा अली और मैं उनसे मिलने गये। रंगीन तबीयत और गुलाबी स्वभाव के डाक्टर अली ने नंदबाबू जैसे गंभीर स्वभाव वाले आदमी को भी खिलखिला कर हँसा दिया। हम नंदबाबू के साथ ही कीर्तिमंदिर की ऊपर की मंजिल पर गये। पूर्व की दीवार पर काली लकीरों से चित्र का स्थान और विस्तार निश्चित कर लिया गया था। नंदबाबू ने दीवार की ओर ताकते हुए अपनी योजना बतायी। मीराबाई की जीवनकथा का आलेखन करना तय हुआ था। हमसे बातें करते करते वह समाधि में डूब गये। कुछ देर बाद दो चार शिष्यों को बुला कर कुछ सूचनाएँ दी और हमारी उपस्थिति से बेखबर अपने काम में लग गये।
एक सप्ताह बाद डाक्टर अली और में फिर से नंदलाल बाबू से मिलने गये। सामान्यतः नंदबाबू किसी को ऊपर नहीं ले जाते थे, पर हमें उन्होंने इस नियम के अपवाद रूप माना था। ऊपर जा कर देखा तो काली रेखाओं के बीच रंगों के धब्बे उभर आये थे। अभी किसी आकृति का रेखाकंन नहीं हुआ था। सिर्फ रंगों का उपादान जुटा था। अली ने मुझसे कहा, “तुमने नंदबाबू की आँखें देखी? उनमें उनके चित्रों की सारी आकृतियाँ प्रतिबिंबि हो रही है। उनके अंतर को जो दर्शन हुआ है, उसकी छाया उनकी आँखों में पड़ रही है। अगले सप्ताह शायद उन्हें मूर्त स्वरूप मिल जाएगा। हमारी इस बातचीत के दौरान नंदबाबू बाहर की दुनिया से बेखबर कूंची लिये अपने काम में डूबे रहे थे।
आठ-दस रोज बाद हम फिर कीर्तिमंदिर पहुंचे। नियमानुसार चाय का प्याला पिलाकर वे हमें ऊपर ले गए। हमने आश्चर्यमुग्ध हो कर देखा, कि दीवार धीरे धीरे जीवित हो रही थी। आकृतियों की रेखाएँ बंध चुकी थी। रंग अधिकाधिक विशद होते जा रहे थे। कलाकार का दर्शन आकार धारण कर रहा था। सृजनप्रतिभा पल्लवित हो रही थी। हम मुग्ध होकर दीवार पर साकार होते जीवन को देखते रहे। नंदबाबू की तूलिका पामर मनुष्याकृतियों को परम आत्मश्री से विभूषित कर रही थी। हम घर जाने के लिए निकले तब कभी चुप न रहने वाले डाक्टर अली रास्ते भर मौन रहे और किसी विचार में डूबे रहे।
नंदबाबू से मिलने का आनंद हमेशा वर्णनातीत होता है। वाणी द्वारा तो वे बहुत कम बातें व्यक्त करते हैं। उनकी अधिकांश बातें मौन के माध्यम से ही होती है। उस समय अभिव्यक्ति का मुख्य वाहन होती है उनकी आँखें। उस दिन सुबह हम पहुंचे तब से वे अत्यंत शांत थे। समाधिस्थ थे – ऐसा कहूं तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। बैठे थे ये इस धरती पर, पर दृष्टि उनकी दूर अगम्य में रम रही थी। हमें किसी शिष्य ने चाय पिलायी और हम ऊपर पहुंचे। उनकी सृजनसमाधि फिर भी अटूट रही। ऊपर जा कर आँखों ने नये आश्चर्य के दर्शन किये। आकृतियों में प्राण दिखाई देने लगे थे। रंग और रेखाओं का द्वैत तिरोहित हो गया था। दोनों ने मिलकर एक नयी लय का निर्माण किया था और इस लय में प्रकट हो रहा था लावण्य। ऐसा लगा मानो “मैं तो दरद दिवानी, मेरो दरद न जाने कोय….” गाती हुई मीरा मूर्त हो उठी हो। जड़ दीवार के कणकण में से यही ध्वनि उमड़ रही थी। यही धून एकाग्र हो रही थी। कलाकार के हृदय की लगन और तल्लीनता देखने वाले को अवाक कर देती है। मंदिर आकाश धरती प्रकाश छाया सब का आलेखन अत्यंत कलामय ढंग से हुआ था। सब मिल कर मीरा की आर्तता का साथ दे रहे थे। नंदबाबू अपनी तूलिका से चित्र को अंतिम रूप दे रहे थे।
यह अंतिम दर्शन था। अपूर्व था वह अनुभव। प्रथम दर्शन के समय संगमरमर जैसे सफेद पत्थर की दीवार मात्र थी। फिर उस पर रेखाएँ उभरी, रंगों का सिंचन हुआ, कलाकार की उंगलियाँ घूमीं और अंत में जीवन प्रकट हुआ।
जीवन के प्रकटीकरण और सर्जन का कैसा भव्य महोत्सव और कलाकार के अस्तित्व का सौन्दर्य के प्रकटीकरण में कैसा धन्य विसर्जन।
२. मस्त शिल्पी
शांतिनिकेतन के कलाभवन के आंगन में शरद की चांदनी बिखर रही थी। ठीक याद नहीं, पर या तो चतुर्दशी थी या पूर्णिमा। दस बजे थे। वैतालिक लौट गये थे। संगीत की छाया में पूरा आश्रम विश्राम कर रहा था। हम एक मित्र से मिल कर विद्याभवन की ओर लौट रहे थे कि कलाभवन के प्रांगण में तीन-चार विद्यार्थियों को लालटेन लिये खड़े हुए देखा। पास ही कीचड़ जैसा दिखाई देने वाला गीली मिट्टी का ढेर पड़ा था और रामकिंकर बाबू बाहें चढ़ा कर खड़े थे। पहले तो कुछ समझ में नहीं आया, पर मालूम पड़ने पर वहाँ से हटने का मन नहीं हुआ। रामबाबू की अनुमति ले कर हमने वहीं अड्डा जमाया। रामबाबू और उनके शिल्पभवन के विद्यार्थियों ने मिलकर तख्तों का एक चबूतरा तैयार किया था। उस पर रातों रात भगवान बुद्ध की प्रतिमा बनानी थी। हाथों के सिवा किसी के पास और कोई औजार नहीं था। रामबाबू ने एक बड़ा सा लौंदा हाथों में लिया और उसकी चिकनाई और गीलेपन का अंदाज लगाया। बांस की खपच्चियों के कुछ टुकड़े पास ही पड़े थे। काम शुरू हुआ। लड़के गीली मिट्टी के बड़े-बड़े पिंड उठा उठा कर रखते जा रहे थे और रामबाबू के कुशल हाथ उन्हें आकार में ढालते जा रहे थे। कुछ देर तक तो मिट्टी के ढेर के सिवा कुछ दिखाई नहीं दिया, लेकिन धीरे-धीरे शिल्पी की अंगुलियों ने मानवदेह के विभिन्न अंगों का आकार दिया। पहले पालती मारे हुए पाँव दिखाई दिये फिर पेट और छाती का भाग स्पष्ट हुआ दोनों हाथों का आकार अलग निकल आया और अंतमें एक घड़े जैसे पिंड में से सिर की रचना हुई। ऊषा के आगमन ने प्रकाश फैलाया और चांदनी विदा हुई, तब तक तो उस प्रयोग वीर शिल्पी ने मूर्ति के होंठ, आँखें, नाक, कान, ललाट इत्यादि सारे अंगों की रचना कर ली थी। प्रभात के सूर्य की कोमल किरणें मूर्ति पर पड़ी, तब उसका रूप स्पष्ट हो चुका था। इतना ही नहीं, मुख के भाव भी अंकित हो चुके थे। भगवान तथागत की पूर्वाभिमुख प्रतिमा अनुकंपा एवं आशीर्वाद की वर्षा कर रही थी। पास ही रामबाबू खड़े थे। वे बालकों जैसी उत्कंठा और सरलता से मूर्ति को देखे जा रहे थे। बस देखे ही जा रहे थे।
मस्त रामबाबू का मूर्तिविधान वाकई अद्भुत था। उनकी सृजनशक्ति और कला दृष्टि के विषय में मतभेद हो नहीं सकता। पर बुद्ध के मूर्तिविधान के बाद दो-तीन दिन तक रामबाबू की मस्ती पर विशाद छाया रहा। तीन चार दिन बाद हमने आश्चर्यमुग्ध होकर देखा, कि कलाभवन के प्रांगण में बुद्ध की प्रतिमा के सामने ही सुजाता की प्रतिमा खड़ी थी। चेहरे पर अभीप्सा और आर्तता के भाव इतने मुखर हो उठे थे, मानो अभी बुद्ध में समाकर अपने अस्तित्व को विलीन कर देना चाहती हो। समर्पण की मानो जमी हुई सुरावली – आत्मनिवेदन की मानो बोलती हुई प्रतिमा।
शिल्पी के हृदय की अब खरी पहचान हुई। उनकी प्रतिभा ने ध्यानस्थ बुद्ध का निर्माण किया, पर इससे उन्हें संतोष नहीं हुआ। अपने सर्वस्व का समर्पण कर देने वाली सुजाता के निर्माण से ही उन्हें शांति मिली।
रामबाबू अब फिर मस्त दिखाई देने लगे। उनकी चाल में वही लापरवाही आ गयी, उनकी आँखें फिर बेलौस हो उठी, उनकी अंतरात्मा फिर से प्रसन्न हो गयी।
सृष्टा कलाकार कितना बड़ा शहंशाह होता है। इसका अनुभव रामकिंकर बाबू को देखने के बाद ही हुआ।
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