रवींद्र शर्मा (गुरुजी) का चिंतन धर्मपाल जी के चिंतन से मिलता भी है और विलग भी। उनके व्यक्तित्व में एक लोकोन्मुखता है, जो धर्मपाल जी के मध्यमवर्गीय व्यक्तित्व से कुछ भिन्न है। ये केवल बाहरी आचरण अथवा बोलने-उठने-बैठने के अंदाजभर की बात नहीं है, बल्कि यूँ कहें, कि उनके विचार करने की पद्धति ही में एक बुनियादी अंतर है।
हालाँकि जैसा पहले भी उल्लेख हुआ है – ये अंतर निष्कर्ष के स्तर पर नहीं है।आगे इस आलेख में जो स्फुट-विचार प्रस्तुत हैं, वो दो स्रोतों पर आधारित है। यूट्यूब पर उपलब्ध गुरुजी के व्याख्यान एवं आशीष कुमार गुप्ता जी तथा पवन कुमार गुप्ता जी द्वारा सम्पादित ग्रंथ – स्मृति जागरण के हरकारे। ‘स्मृति जागरण के हरकारे’ पढ़ने के उपरान्त पिछले वर्ष कुछ notes मित्रों से साझा किये थे। उन notes का भी यथावत प्रयोग किया गया है।
गुरुजी की अभिव्यक्ति का माध्यम लिखित नहीं रहा। अतः एक तरह से हल्के-फुल्के अंदाज़ में सोचा जाए, तो ये एक तरह का अंतर्विरोध ही होगा, कि हम उस व्यक्ति के बारे में लिखकर विचार कर रहे हैं, जिन्होंने मूलतः लिखित-शब्द की बनिस्बत मौखिक को वरीयता दी। हालाँकि भारतीय धारा का मूल स्वर तो मौखिक ही है।
गुरुजी का चिंतन हमारे लिए नए प्रस्थान भी खोलता है और नई तरह की उलझनें भी पैदा करता है और ये दोनों साथ-साथ चलते हैं।
गुरुजी ने मौखिक परम्परा पर जिस तरह ध्यान दिया, उसकी एक पृष्ठभूमि है; विशेषतः हिंदी भाषी क्षेत्र में। चूँकि गुरुजी का कार्यक्षेत्र पश्चिम और दक्षिण भारत अधिक रहा, अतः इन सबका उनके जीवन से तो सीधा संबंध नहीं बैठता, लेकिन चिंतन से ज़रूर बैठ जाता है। पिछली सदी में लोकवार्ता पर कार्य करने वाले अध्येताओं ने वाचिक परम्परा पर बहुत ध्यान दिया था। राहुल सांकृत्यायन, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी तथा वासुदेव शरण जी अग्रवाल के प्रयासों से लोकवार्ता का सुसंगत अध्ययन आरम्भ हुआ।
अवधी – ब्रज – बुन्देलखण्डी – राजस्थानी – बघेली – बुंदेली – भोजपुरी आदि की लोकगाथाएँ मुहावरे स्त्रीगीत कृषि संबंधी शब्दावली तथा अनेकानेक दूसरे पक्षों का अभिलेखीकरण हुआ। श्री गुरुजी प्रलय काल के रूपक द्वारा जिन बीजों के संरक्षण का विचार दे रहे थे, वह एक तरह से लोक केअभिलेखीकरण का ही प्रयास रहा। जब अम्बाप्रसाद सुमन जी ने वासुदेवशरण अग्रवाल जी के निर्देशन में ब्रजभाषा की कृषि संबंधी शब्दावली पर शोध किया, तो वह एक तरह से लुप्त होती परम्परा का दस्तावेज़ीकरण ही था। डॉ सत्येंद्र जी ने लोकवार्ता विज्ञान लिखकर उसका पूरा शोध सिद्धांत तैयार किया। सैंकड़ों शोधार्थियों द्वारा तीज त्योहारों पर बनने वाले डिज़ाइन – गाये जाने वाले गीत – प्रयुक्त सामग्री – उपकरण – कथाओं आदि का दस्तावेज़ीकरण हुआ। यह गुरूजी द्वारा प्रतिपादित अभिलेखीकरण के रूप में बीज संरक्षण का ही कार्य रहा।
हालाँकि लोकवार्ता के शोधार्थियों को गुरूजी के चिंतन से यह सीखने की आवश्यकता है, कि कारीगरों शिल्पकारों के कौशल पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। वो कार्य विज्ञान तथा कला के बीच Interdisciplinary [अन्तरानुशासनिक] कार्य होगा। ये बात भी गौरतलब है, कि आदिवासी इलाक़ों को छोड़कर बाकी भारत में पुरानी तकनीकें अपने जीवित रूप में शायद ही बची हैं। इसलिए आज उनका अध्ययन बहुत कठिन ही ठहरेगा। पश्चिम में भी folklore के रास्ते वाचिक परम्परा पर ध्यान दिया जाने लगा है और साथ ही इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में भी वाचिक परम्परा को एक वैध पद्धति स्वीकारा गया है। उदाहरण के लिए विभाजन के दौरान जो भारी मारकाट हुई थी, उसतक पहुँचने का एक महत्त्वपूर्ण मार्ग है – उस विभीषिका के बीचो बीच भुक्तभोगी लोगों के मौखिक आख्यान।
गुरुजी ने माया के लिए डिज़ाइन शब्द सुझाया था। यह एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है। वेदांत में ये एक अलग तरह से आता है। सृष्टि का यह जो मिथ्यात्व या भ्रम है उससे सबंधित। भारत में आमतौर पर कुछ ऐसा घटित होने पर जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती तो बोलचाल की भाषा में कह दिया जाता है, कि सब भगवान की लीला है, या फ़िर – सब प्रभु की माया है।
माया शब्द बहुत जटिल अर्थ में आता है। इसका अर्थ ठीक-ठीक पकड़ना कठिन है। कबीर ने कहा था, माया महाठगिनी हम जानी। ध्यातव्य है, कि कबीर संत होने के साथ-साथ शिल्पकार बुनकर समाज से आते हैं। जब वे माया को महाठगिनी कह रहे हैं, तो एक दूसरे अर्थ में वे उसे बहुत जटिल डिज़ाइन ही इंगित कर रहे हैं। श्रीअरविन्द ने अपने महाग्रंथ ‘The Life Divine’ में माया पर बहुत चर्चा की है। चूँकि उस अवधारणा से उलझना इतना आसान मामला नहीं है। भूल-भुलैया से निकलना इसलिए कठिन होता है, कि उसकी डिज़ाइन के भीतर से मार्ग निकालना टेढ़ा कार्य रहता है। भारत में स्त्रियों का नाम अक्सर माया रहा है। बुद्ध की माताजी का नाम भी माया ही था। भगवती का एक नाम महामाया है ही। अतः गुरुजी के इस संकेत पर ध्यान दिया जाना चाहिए, कि माया डिज़ाइन के अर्थ में है। वह सकारात्मक और नकारात्मक – दोनों से अलग – अन्तर्निहित complexity अर्थात संश्लिष्ट के अर्थ में है।
(क्रमश:)
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